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पेड़ों के तनों की क़तार के पार जहाँ धूप के चकत्ते हैं वहाँ तुम भी हो सकती थीं...

दीप बुझ चुका, दीपन की स्मृति शून्य जगत् में छुट जाएगी; टूटे वीणा-तार, पवन में कम्पन-लय भी लुट जाएगी; मधुर सुमन-सौरभ लहरें भी होंगी मूक भूत के सपने- कौन जगाएगा तब यह स्मृति- कभी रहे तुम मेरे अपने?...

तड़पी कीर की पुकार : प्राण! विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-प्राण! कितनी जीवनियों की नीरवता छिन्न हुई उस स्वर से सहसा मेरा यह संगीत अपरिचित जगत हुआ ध्वनि से आलोकित...

रेत का विस्तार नदी जिस में खो गई कृश-धार । झरा मेरे आँसुओं का भार...

राही, चौराहों पर बचना! राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में ...

मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ, अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ, सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे- आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ।...

न कहीं से न कहीं को पुल न किसी का...

सागर जो गाता है वह अर्थ से परे है— वह तो अर्थ को टेर रहा है। हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है, ...

सोया था मैं नींद में को एकाएक सपने में गया जाग : सपना आग का...

भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक की विजन को पकड़ती-सी क्लान्त बेसुर डाक- 'हाक्! हाक्! हाक्!' मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना-...

रेती में चार टूटी पर सँवारी हुई सीपियाँ, एक ढहा हुआ बालू का घरहरा...

मैं ने कहा, डूब चाँद! रात को सिहरने दे, कुइँयों को मरने दे, आक्षितिज तम फैल जाने दे। -पर तम थमा और मुझ ही में जम गया।...

उन्होंने घर बनाये और आगे बढ़ गये जहाँ वे और घर बनाएँगे। हम ने वे घर बसाये...

ना, ना; फेर नहीं आतीं ये सुन्दर रातें, ना ये सुन्दर दिन! नहीं बाँध कर रक्खा जाता, छोटा-सा पल-छिन। चढ़ डोले पर चली जा रही, काल की दुलहिन। साथी, उसी गैल में तुम स्वेच्छा से अपना घोड़ा डाल दो,...

मन दुम्मट-सा गिरता है सूने में अँधेरे में; न जाने कितनी गहरी है...

जब पपीहे ने पुकारा-- मुझे दीखा-- दो पँखुरियाँ झरीं गुलाब की, तकती पियासी पिया-से ऊपर झुके उस फ़ूल को ओठ ज्यों ओठों तले।...

ओ सागर ओ मेरी धमनियों की आग, मेरे लहू के स्पन्दित राज-रोग, सागर...

चार का गजर कहीं खड़का- रात में उचट गयी नींद मेरी सहसा : छोटे-छोटे, बिखरे से, शुभ्र अभ्र-खंडों बीच- द्रुत-पद भागा जा रहा है चाँद :...

ओ तेरा यह अविकल मर्मर! ओ पथ-रोधक चट्टानों को भी खंडित कर देने वाले! ओ प्रत्यवलोकन के हित भी रुक कर साँस न लेने वाले! विफल जगत् का हृदय चीर कर कर्म-तरी के खेने वाले!...

एक द्वार या झरोखा एक नारी एक नसेनी और एक प्रतीक्षा सदैव एक प्रतीक्षा किसकी प्रतीक्षा? नारी की नसेनी की...

प्रियतम! देखो, नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-शृंगों को ठुकरा कर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आयी है! समुद्र से मिल जाने के पहले उसने अपनी चिर-संचित स्मृतियाँ, अपने अलंकार-आभूषण, अपना सर्वस्व, अलग करके एक ओर रख दिया है, जहाँ वह एक परित्यक्त केंचुल-सा मलिन पड़ा हुआ है। और, प्रियतम! इतना ही नहीं, वह देखो नदी ने यद्यपि कुछ दूर तक समुद्र को रँग दिया है अवश्य, तथापि अपने मिलन में उस ने अपना स्वभाव भी उत्सर्ग कर दिया है, वह अपने प्रणयी के साथ लवण और अग्राह्य हो गयी है! प्रियतम! देखो......

सीखा है तारे ने उमँगना जैसे धूप ने विकसना हरी घास ने पैरों में लोट-लोट बिछलना-विलसना, और तुम ने-पगली बिटिया-हँसना, हँसना, हँसना, सीखा है मेरे भी मन ने उमसना, मेरी आँखों ने बरसना,...

पता नहीं कैसे, तुम मेरे बहुत समीप आ पायी थीं...और अस्थायी अत्यन्त सान्निध्य में मैं काँप गया था, किन्तु तुम कितनी जल्दी परे चली गयीं? मेरा जीवन क्या हो सकता है वह देख कर मैं फिर अपने पुराने भव में लौट आया हूँ। मुझे वह प्राण-सखा नहीं मिला। कितना अच्छा होता, अगर ये मित्र भी न मिलते, अगर इस आंशिक पूर्ति से वह अनन्त आपूर्ति की संज्ञा अधिक जाग्रत न हो पाती!...

सूरज ने खींच लकीर लाल नभ का उर चीर दिया। पुरुष उठा, पीछे न देख मुड़ चला गया! यों नारी का जो रजनी है; धरती है, वधुका है, माता है, प्यार हर बार छला गया।...

जब तुम मेरी ओर अपनी अपलक आँखों से एक अद्भुत जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखते हो, जिस में संसार-भर की कोई माँग है, तब प्राणों के एक कम्पन के साथ मैं बदल जाती हूँ, मुझे एक साथ ही ज्ञान होता है कि मैं अखिल सृष्टि हूँ, और क्षुद्र हूँ, कुछ नहीं हूँ। प्रियतम! प्रेम हमें उठाता है, या गिराता है, या उठने और गिराने मात्र की तुच्छ तुलनाओं से परे कहीं फेंक देता है......

मैं अब सत्य को छिपा नहीं सकता। मैं चाहता हूँ, यह विश्वास कर सकूँ कि तुम में व्यथा का अनुभव करने का सामथ्र्य ही नहीं है; क्योंकि मेरा अपना हृदय टूट गया है, और मैं अधिक नहीं सह सकता। मेरी इच्छा है कि तुम्हें क्रूर और अत्याचारी समझ सकूँ, क्योंकि मेरा उद्धार इसी विश्वास में है कि मैं तुम्हारी बलि हूँ। हमने- मैं ने और तुम ने- जो भयंकर भूल की है, उस से बचने का इस के अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है।...

तब- इतिहास नहीं था जब- जिन की ये हड्डियाँ हैं वे जीवित थे।...

क्यों यह मेरी ज़िन्दगी फूटे हुए पीपे के तेल-सी बूँद-बूँद अनदेखी चुई काल की मिट्टी में रच गयी?...

देवता! मैं ने चिरकाल तक तुम्हारी पूजा की है। किन्तु मैं तुम्हारे आगे वरदान का प्रार्थी नहीं हूँ। मैं ने घोर क्लेश और यातना सह कर पूजा की थी। किन्तु अब मुझे दर्शन करने का भी उत्साह नहीं रहा। पूजा करते-करते मेरा शरीर जर्जर हो गया है, अब मुझ में तुम्हारे वरदान का भार सहने की क्षमता नहीं रही। मैं ने तुम्हें अपनी आराधना से प्रसन्न-भर कर लिया है। अब अत्यन्त जर्जर हो गया हूँ और कुछ चाहता नहीं; किन्तु पूर्वाभ्यास के कारण अब भी आराधना किये जा रहा हूँ।...

अभी माघ भी चुका नहीं, पर मधु का गरवीला अगवैया कर उन्नत शिर, अँगड़ाई ले कर उठा जाग भर कर उर में ललकार-भाल पर धरे फाग की लाल आग। धूल बन गयी नदी कनक की-लोट-पोट न्हाती गौरैया।...

फैला है पठार, सलवट की ओट बिछा है कन्धा : काली परती, भूरे ऊसर, तोतापरी खेत गेहूँ के, कितनी हैं थिगलियाँ पुराने इस कन्धे पर! सिलीं मेंड़ की या पगडंडी की जर्जर डोरी से-...

मरु बोला : हाय यह हास्यास्पद ममता! ओ रे खेत, किस हेतु यह यत्न, यह उथल-पुथल, यह-कह ही डालूँ-आडम्बर? देखना-जब बहेगी लू, जब पड़ेगा पाला,...

रीता घर सूना गलियारा वन की तरु-राजि बिसूर पियूर की हवा की थकी साँस :...

शशि जब जा कर फिर आये-सरसी तब शून्य पड़ी थी! सुख से रोमांचित होती कुमुदिनी कहीं न खड़ी थी। शशि मन में हँस कर बोले-'मुग्धा से परिणति होगी? सरसी में शीश छिपा कर मुझ से क्या मान करोगी?'...

जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो जिन की साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज फहराता है लेकिन जिन के शौचालयों में व्यवस्था नहीं है कि निवृत्त हो कर हाथ धो सकें!...

ठीक है मैं ने ही तेरा नाम ले कर पुकारा था पर मैं ने यह कब कहा था कि यों आ कर...

जियो उस प्यार में जो मैं ने तुम्हें दिया है, उस दु:ख में नहीं, जिसे बेझिझक मैं ने पिया है।...

भोर का बावरा अहेरी पहले बिछाता है आलोक की लाल-लाल कनियाँ पर जब खींचता है जाल को ...

क्यों पूछ-पूछ जाती है तारक-नयनों की झपकी- क्या अभी अलक्षित ही हैं किरणें तेरे दीपक की? इस जीवन के सागर में मेरा रस-बिन्दु कहाँ है? सब ओर चाँदनी छिटकी-मेरी ही इन्दु कहाँ है?...

लो यह मेरी ज्योति, दिवाकर! उषा-वधू के अवगुंठन-सा है लालिम गगनाम्बर मैं मिट्टी हूँ, मुझे बिखरने दो मिट्टी में मिल कर! लो यह मेरी ज्योति दिवाकर!...