निवेदन
मैं जो अपने जीवन के क्षण-क्षण के लिए लड़ा हूँ, अपने हक के लिए विधाता से भी उलझ पड़ा हूँ, सहसा शिथिल पड़ गया है आक्रोश हृदय का मेरे- आज शान्त हो तेरे आगे छाती खोल खड़ा हूँ। मुझे घेरता ही आया है यह माया का जाला, मुझे बाँधती ही आयी है इच्छाओं की ज्वाला; मेरे कर का खड्ग मुझी से स्पर्धा करता आया- साधन आज मुक्ति का हो तेरे कर की वनमाला! मर्म दुख रहा है, पर पीड़ा तो है सखी पुरानी, व्यथा-भार से नहीं झुका है यह अन्तर अभिमानी; आज चाहता हूँ कि मौन ही रहे निवेदन मेरा- स्वस्ति-वचन में ही हो जावे मेरी पूर्ण कहानी!

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