क्यों पूछ-पूछ जाती है
क्यों पूछ-पूछ जाती है तारक-नयनों की झपकी- क्या अभी अलक्षित ही हैं किरणें तेरे दीपक की? इस जीवन के सागर में मेरा रस-बिन्दु कहाँ है? सब ओर चाँदनी छिटकी-मेरी ही इन्दु कहाँ है? शशि घन में छिप सकता है-मेरा शशि नहीं छिपेगा- पर इस अभिमान भरोसे कब तक यह प्राण रहेगा? 'आओगे', इस आशा में 'हो दूर' की छिपी तड़पन- जब स्रोत हुआ हालाहल कैसी तन्मयता, जीवन! अच्छा होता कि हताशा अतिशय पूरी हो जाती- तेरी अनुपस्थिति से ही मैं अपने प्राण बसाती! जब विरह पहुँच सीमा पर आत्यन्तिक हो जाता है- हो कर वह आत्म-भरित तब प्रियतम को पा जाता है। सागर जब छलक-छलक कर भी शून्य अमा पाता है- तब किस दुस्सह स्पन्दन से उस का उर भर आता है!

Read Next