कीर की पुकार
तड़पी कीर की पुकार : प्राण! विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार-प्राण! कितनी जीवनियों की नीरवता छिन्न हुई उस स्वर से सहसा मेरा यह संगीत अपरिचित जगत हुआ ध्वनि से आलोकित दुर्निवार कर-स्पर्श प्रताडि़त स्मृति वीणा झनझना उठी वह लोकोत्तर झनकार! प्राण! प्राण! कीर, तुम्हारा रुप-रंग है पृथ्वी का आशा-संकेत यह तीखा आलाप तुम्हारा क्यों फिर घोर व्यथा का हेतु? ओ मधु के मधु-गायक पक्षी! क्यों व्यापक है तेरा गान? वर्षा की गति धारासार शरद-शिशिर का पीड़ा-भार, खर-निदाघ के बरस रहे अंगार- और-और अतिरिक्त कहीं कुछ, जिसे न बाँधे शब्द-विधान! स्मृति की शक्ति-विगत जीवन की ममता- उस अजस्र से तारतम्य की क्षमता- उर के भीतर कहीं जमा कर, निज पुकार के क्षण में अखिल विश्व तड़पा कर, कुछ जो हो जाता नि:स्पन्द, मूक! और हम-तद्गत, विरही, जागरूक! प्राण! प्राण! प्राण! कीर, अगर कुछ कहे को समर्थ मैं रहता- विवश प्रेरणा से बस कहता- चुप हो, चुप हो, बन्द करो यह तान- इस छोटे जग में न उठाओ अखिल भुवन का गान! पर कैसे? जब एक बार तुम बोले, तत्क्षण लुटा जगत्, अन्त:पट खोले! एक तथ्य रह गया जगत में दुर्निवार, विह्वल नाच उठा यह मेरा छोटा-सा संसार- दु:सह, अनुक्रम बार-बार तड़पी कीर की पुकार : प्राण! प्राण! प्राण! प्राण!

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