अन्तःसलिला
रेत का विस्तार नदी जिस में खो गई कृश-धार । झरा मेरे आँसुओं का भार -मेरा दुःख-घन, मेरे समीप अगाध पारावार- उस ने सोख सहसा लिया जैसे लूट ले बटमार । और फिर आक्षितिज लहरीला मगर बेटूट सूखी रेत का विस्तार- नदी जिस में खो गई कृश-धार । किंतु जब-जब जहाँ भी जिस ने कुरेदा नमी पाई : और खोदा- हुआ रस-संचार : रिसता हुआ गड्ढा भर गया । यों अजाना पांथ जो भी क्लांत आया, रुका ले कर आस, स्वल्पायास से ही शांत अपनी प्यास इसे ले कर गया : खींच लम्बी साँस पार उतर गया । अरे, अन्तःसलिल है रेत : अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम फिर भी घाव अपने आप भरती, पड़ी सज्जाहीन, घूसर-गौर निरीह और उदार !

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