ब्राह्म मुर्हूत : स्वस्तिवाचन
जियो उस प्यार में जो मैं ने तुम्हें दिया है, उस दु:ख में नहीं, जिसे बेझिझक मैं ने पिया है। उस गान में जियो जो मैं ने तुम्हें सुनाया है, उस आह में नहीं, जिसे मैं ने तुम से छिपाया है। उस द्वार से गु जरो जो मैं ने तुम्हारे लिए खोला है, उस अन्धकार से नहीं जिस की गहराई को बार-बार मैं ने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है। वह छादन तुम्हारा घर हो जिस मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा; वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा। वह पथ तुम्हारा हो जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा; मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़-तोड़ मैं जो कारीगर हूँ, करीने से सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा। सागर के किनारे तक तुम्हें पहुँचाने का उदार उद्यम ही मेरा हो : फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो, सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो, वह सब, ओ मेरे वर्ग! तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

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