मरु और खेत
मरु बोला : हाय यह हास्यास्पद ममता! ओ रे खेत, किस हेतु यह यत्न, यह उथल-पुथल, यह-कह ही डालूँ-आडम्बर? देखना-जब बहेगी लू, जब पड़ेगा पाला, जब आएगी बर्फ की बर्छियों से हाड़ों को भेदती-सी उत्तर की निष्ठुर हवा, झुलसेंगे, पाले से मरेंगे तुम्हारे पात-पात अंकुर, तब कैसे दर्द होगा! मेरी-मुझ अचंचल को देखो; मेरी यह सीख है : ममता की सर्वदु:ख-मूल है बीज मात्र वेदना का बीज है! हँसा खेत : मरु काका, ठीक है। होगा वही लू बहेगी, पाला भी पड़ेगा-दु:ख होगा ही। किन्तु जब मेरी छाती फोड़ कर अंकुर एक फूटेगा और भोली गर्व-भरी आस्था से निहारेगा, तब-उस एक मात्र क्षण में-किन्तु काका, आप से क्या कहूँ और... नव-सर्जन में जो अपने को होम कर होते हैं आनन्दमग्न उन की तो दृष्टि और होती है!

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