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उस ने छू कर मुझे पत्थर से फिर इंसान किया मुद्दतों बअ'द मिरी आँखों में आँसू आए...

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है...

हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना मतलब नहीं कुछ इस से कि मतलब ही बर आवे...

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में कभी मेरे गरेबाँ को कभी जानाँ के दामन को...

जगती के जन पथ, कानन में तुम गाओ विहग! अनादि गान, चिर शून्य शिशिर-पीड़ित जग में निज अमर स्वरों से भरो प्राण।...

श्यामल प्रभु से, भू की गाँठ बाँधती, जोरा-जोरी, सूर्य किरण ये, यह मन-भावनि, यह सोने की डोरी, छनक बाँधती, छनक छोड़ती, प्रभु के नव-पद-प्यार पल-पल बहे पटल पृथिवी के दिव्य-रूप सुकुमार!...

आँसू की आँखों से मिल भर ही आते हैं लोचन, हँसमुख ही से जीवन का पर हो सकता अभिवादन। ...

न सूरत कहीं शादमानी की देखी बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी मिरी चश्म-ए-ख़ूँ-बार में ख़ूब रह कर बहार आप ने गुल-फ़िशानी की देखी...

घास की एक पत्ती के सम्मुख मैं झुक गया और मैने पाया कि मैं आकाश छू रहा हूँ...

मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम दिल के हाथों से पड़े कैसी गिरफ़्तारी में हम सब पे रौशन है हमारी सोज़िश-ए-दिल बज़्म में शम्अ साँ जलते हैं अपनी गर्म-बाज़ारी में हम...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...