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ठंडे पानी से नहलातीं, ठंडा चंदन इन्हें लगातीं, इनका भोग हमें दे जातीं, फिर भी कभी नहीं बोले हैं।...

वंदन कर भारत माता का, गणतंत्र राज्य की बोलो जय। काका का दर्शन प्राप्त करो, सब पाप-ताप हो जाए क्षय॥ मैं अपनी त्याग-तपस्या से जनगण को मार्ग दिखाता हूँ। है कमी अन्न की इसीलिए चमचम-रसगुल्ले खाता हूँ॥...

अब तो उन की याद भी आती नहीं कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ...

कौन, प्रकृति के करुण काव्य-सा, वृक्ष-पत्र की मधु छाया में। लिखा हुआ-सा अचल पड़ा हैं, अमृत सदृश नश्वर काया में।...

मेघों की गुरु गुहा सा गगन वाष्प बिन्दु का सिंधु समीरण! विद्युत् नयनों को कर विस्मित स्वर्ण रेख करती हँस अंकित...

शायद तुम सच ही कहते थे-वह थी असली प्रेम-परीक्षा! मेरे गोपनतम अन्तर के रक्त-कणों से जीवन-दीक्षा! पीड़ा थी वह, थी जघन्य भी, तुम थे उस के निर्दय दाता! तब क्यों मन आहत होकर भी तुम पर रोष नहीं कर पाता?...

चश्म पुर-नम ज़ुल्फ़ आशुफ़्ता निगाहें बे-क़रार इस पशीमानी के सदक़े मैं पशीमाँ हो गया...

नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है हर सम्त वो रुख़ जल्वा-नुमा मेरे लिए है उस चेहरा-ए-अनवर की ज़िया मेरे लिए है वो ज़ुल्फ़-ए-सियह ताब-ए-दोता मेरे लिए है...

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता...

दीवार बनकर खड़े हैं दुःख चुभते हैं विषैले शूल की तरह रिसता है लहू जल-प्रपात-सा थकी-हारी देह से ...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...