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बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने...
मेरे शहर के सारे रस्ते बंद हैं लोगो मैं इस शहर का नग़्मा-गर जो दो इक मौसम ग़ुर्बत के दुख झेल के आया ताकि अपने घर की दीवारों से...
ये जफ़ा-ए-ग़म का चारा वो नजात-ए-दिल का आलम तिरा हुस्न दस्त-ए-ईसा तिरी याद रू-ए-मर्यम दिल ओ जाँ फ़िदा-ए-राहे कभी आ के देख हमदम सर-ए-कू-ए-दिल-फ़िगाराँ शब-ए-आरज़ू का आलम...
वेखो नी शहु इनायत साईं । मैं नाल करदा किवें अदाईं । कदी आवे कदी आवे नाहीं, त्युं त्युं मैनूं भड़कन भाहीं, नाम अल्ल्हा पैग़ाम सुणाईं, मुक्ख वेखन नूं ना तरसाईं ।...
धार थी तुममें कि उसको आँकते ही हो गया बलिहार था मैं। शौक़ खतरों-जोखिमों से खेल करने का नहीं मेरा नया था, किंतु चुम्बक से खिंचा जैसा तुम्हारे...
क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर देखो ज़मीं फ़लक से फ़लक है ज़मीं से दूर परवाना वस्ल-ए-शम्अ पे देता है अपनी जाँ क्यूँकर रहे दिल उस के रुख़-ए-आतिशीं से दूर...
किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में धोके से इस सुकूत के सहरा में आ गया...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...