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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं...
पशुओं से मृदु चर्म, पक्षियों से ले प्रिय रोमिल पर, ऋतु कुसुमों से सुरँग सुरुचिमय चित्र वस्त्र ले सुंदर, सुभग रूज़, लिप स्टिक, ब्रौ स्टिक, पौडर से कर मुख रंजित, अंगराग, क्यूटेक्स अलक्तक से बन नख शिख शोभित;...
तन्हा तन्हा दुख झेलेंगे महफ़िल महफ़िल गाएँगे जब तक आँसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनाएँगे तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं देर न करना घर आने में वर्ना घर खो जाएँगे...
न रूह-ए-मज़हब न क़ल्ब-ए-आरिफ़ न शाइराना ज़बान बाक़ी ज़मीं हमारी बदल गई है अगरचे है आसमान बाक़ी शब-ए-गुज़िश्ता के साज़ ओ सामाँ के अब कहाँ हैं निशान बाक़ी ज़बान-ए-शमा-ए-सहर पे हसरत की रह गई दास्तान बाक़ी...
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी सो रहता है ब-अंदाज़-ए-चकीदन सर-निगूँ वो भी रहे उस शोख़ से आज़ुर्दा हम चंदे तकल्लुफ़ से तकल्लुफ़ बरतरफ़ था एक अंदाज़-ए-जुनूँ वो भी...
विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका...
शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद...
दोनों पंख काट कर मेरे- मुझ को ला फेंका निर्मोही तूने किस घनघोर अँधेरे! थे अभ्यासी प्राण अनन्त गगन में विचरण करने के- गीतों में नभ, नभ में निज निर्बाध गीत बस भरने के।...
पहले तो हुस्न-ए-अमल हुस्न-ए-यक़ीं पैदा कर फिर इसी ख़ाक से फ़िरदौस-ए-बरीं पैदा कर यही दुनिया कि जो बुत-ख़ाना बनी जाती है इसी बुत-ख़ाने से काबे की ज़मीं पैदा कर...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...