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ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके हम अपने जौहरों को नुमायाँ न कर सके हो कर ख़राब-ए-मय तिरे ग़म तो भुला दिए लेकिन ग़म-ए-हयात का दरमाँ न कर सके...
गुज़र गए कई मौसम कई रुतें बदलें उदास तुम भी हो यारो उदास हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं रंज-ए-चाक-दामानी कि सच कहें तो दरीदा-लिबास हम भी हैं...
क्या ग़ज़ब है हुस्न के बीमार होने की सदा जैसे कच्ची नींद से बेदार होने की अदा इंकिसार-ए-हुस्न पलकों के झपकने में निहाँ नीम-वा बीमार आँखों से मुरव्वत सी अयाँ...
क्या यही है पुरुष की नियति कि बार-बार लोभ-वश -किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!) उसे कैसे माना जाय लोभ?-...
उँगलियों से छिड़ते जिस काल। सुधा की बूँदें पाते कान। धुन सुने सिर धुनते थे लोग। तान में पड़ जाती थी जान।1।...
उच्चियां पहाड़ियां दे उहले उहले सूरजा रिशमां दी लाब प्या लाए । पीली पीली धुप्पड़ी नूं...
उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए सच ख़ुद से भी ये लोग नहीं बोलने वाले ऐ अहल-ए-जुनूँ तुम यहाँ बेकार में आए...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...