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क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है भारी भोझा लाद लिया न सँभार है छल छालों से पैर छिले न उबार है...
राजा बसन्त, वर्षा ऋतुओं की रानी, लेकिन, दोनों की कितनी भिन्न कहानी ! राजा के मुख में हँसी, कंठ में माला, रानी का अन्तर विकल, दृगों में पानी।...
गये दिनों में औरों से भी मैं ने प्रणय किया है- मीठा, कोमल, स्निग्ध और चिर-अस्थिर प्रेम दिया है। आज किन्तु, प्रियतम! जागी प्राणों में अभिनव पीड़ा- यह रस किसने इस जीवन में दो-दो बार पिया है?...
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़ तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है...
चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने चमन रहा न रहे वो चमन के अफ़्साने सुना नहीं हमें उजड़े चमन के अफ़्साने ये रंग हो तो सनक जाएँ क्यूँ न दीवाने...
फिर तिरी तितली-नुमा सूरत मुझे याद आ गई मुझ को वो लम्हा अभी भूला नहीं एक कोने में कई लोगों के साथ गुफ़्तुगू में मुंहमिक खोया हुआ...
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हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...
गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...
हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...
हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...
है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...
उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...
गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...
चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...