Discover Poetry

मेरी पोर-पोर गहरी निद्रा में थी जब तुमने मुझे जगाया। हिमनिद्रा में जड़ित रीछ...

दिल ही तो है न आए क्यूँ दम ही तो है न जाए क्यूँ हम को ख़ुदा जो सब्र दे तुझ सा हसीं बनाए क्यूँ...

या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं...

हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया...

तरु के छोटे-से हे किसलय! तरु-उर में ही रहो छिपे, इच्छा के रूप रहो छविमय॥ जग कितना भीषण है इसमें,...

यदि जीवन पुनः बना पाता। मैं करता चकनाचूर न जग का दुख-संकटमय यंत्र पकड़, बस कुछ कण के परिवर्तन से क्षण में क्या से क्या हो जाता।...

जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है ज़िंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है धूप के क़हर का डर है तो दयार-ए-शब से सर-बरहना कोई परछाईं निकलती क्यूँ है...

ये किताबों की सफ़-ब-सफ़ जिल्दें काग़ज़ों का फ़ुज़ूल इस्ती'माल रौशनाई का शानदार इसराफ़ सीधे सीधे से कुछ सियह धब्बे...

मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा...

आए बुत-ख़ाने से काबे को तो क्या भर पाया जा पड़े थे तो वहीं हम को पड़ा रहना था...

Recent Updates

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...