Sachchidananda Vatsyayan
अज्ञेय
( 1911 - 1987 )

Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Agyeya' (Hindi: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"), popularly known by his pen-name Ajneya ("Beyond comprehension"), was a pioneer of modern trends not only in the realm of Hindi poetry, but also fiction, criticism and journalism. He was one of the most prominent exponents of the Nayi Kavita (New Poetry) and Prayog (Experiments) in Modern Hindi literature, edited the 'Saptaks', a literary series, and started Hindi newsweekly, Dinaman. More

सुख मिला : उसे हम कह न सके। दुख हुआ: उसे हम सह न सके।...

पुरुष! जो मैं दीखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ, उसे मत ललकारो! तुम्हें क्या यह विश्वास हो गया है कि मुझ में अनुभूति-क्षमता नहीं है? तुम क्या सचमुच ही मानते हो कि मैं केवल मोम की पुलती हूँ, कोमल, चिकनी, बाह्य उत्ताप से पिघल सकने वाली, किन्तु स्वयं तपाने के, भस्म करने के लिए सर्वथा असमर्थ? मुझ में भी उत्ताप है, मुझ में भी दीप्ति है, मैं भी एक प्रखर ज्वाला हूँ। पर मैं स्त्री भी हूँ, इसलिए नियमित हूँ, तुम्हारी सहचरी हूँ, इसलिए तुम्हारी मुखापेक्षी हूँ, इसलिए प्रणयिनी हूँ, इसलिए तुम्हारे स्पर्श के आगे विनम्र और कोमल हूँ।...

लहरीला पिघला सोना झरने पर तिपहर की धूप मुगा रेशम के लच्छे डाल बादाम की फूलों-लदी...

यहीं पर सब हँसी सब गान होगा शेष : यहाँ से...

वह इतना नहीं, इस से कहीं अधिक है। तुम में कोई क्रूर और कठोर तत्त्व है- तुम निर्दय लालसाओं की एक संहत राशि हो! यही है जो कि एकाएक मानो मेरा गला पकड़ लेता है, मेरे मुख में प्यार के शब्दों को मूक कर देता है- यहाँ तक कि मैं तुम से भी अपना मुख छिपा कर अपने ओठों को तुम्हारे सुगन्धित केशों में दबा कर, अस्पष्ट स्वर में अपनी वासना की बात कहता हूँ- कह भी नहीं पाता, केवल अपने उत्तप्त श्वास की आग से अपना आशय तुम्हारे मस्तिष्क पर दाग देता हूँ। यही जुगुप्सापूर्ण और रहस्यमयी बात है जिस के कारण मैं तुम्हारे प्रेम के निष्कलंक आलोक में भी डरता रहता हूँ......

एक जगत् रूपायित प्रत्यक्ष एक कल्पना सम्भाव्य। एक दुनिया सतत मुखर एक एकान्त निःस्वर...

गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल, शिष्य से बोले : 'कहाँ चला ले जाल अभी ? पहले मछलियाँ पकड़ तो ला ?'...

विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार- रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार- 'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?' नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;...

प्यार एक यज्ञ का चरण जिस में मैं वेध्य हूँ। प्यार एक अचूक वरण कि किस के द्वारा...

मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ- या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ, तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ-...