पुरुष! जो मैं दीखती हूँ, वह मैं हूँ नहीं, किन्तु जो मैं हूँ, उसे मत ललकारो! तुम्हें क्या यह विश्वास हो गया है कि मुझ में अनुभूति-क्षमता नहीं है? तुम क्या सचमुच ही मानते हो कि मैं केवल मोम की पुलती हूँ, कोमल, चिकनी, बाह्य उत्ताप से पिघल सकने वाली, किन्तु स्वयं तपाने के, भस्म करने के लिए सर्वथा असमर्थ? मुझ में भी उत्ताप है, मुझ में भी दीप्ति है, मैं भी एक प्रखर ज्वाला हूँ। पर मैं स्त्री भी हूँ, इसलिए नियमित हूँ, तुम्हारी सहचरी हूँ, इसलिए तुम्हारी मुखापेक्षी हूँ, इसलिए प्रणयिनी हूँ, इसलिए तुम्हारे स्पर्श के आगे विनम्र और कोमल हूँ।...
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ। जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ वह दो खम्भों के बीच है। रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ...
अब आप हीं सोचिये कि कितनी सम्भावनाएँ हैं कि मैं आप पर हँसूं और आप मुझे पागल करार दे दें. याकि आप मुझ पर हँसें और आप हीं मुझे पागल करार दे दें. या कि आपको कोई बताए ...
वह इतना नहीं, इस से कहीं अधिक है। तुम में कोई क्रूर और कठोर तत्त्व है- तुम निर्दय लालसाओं की एक संहत राशि हो! यही है जो कि एकाएक मानो मेरा गला पकड़ लेता है, मेरे मुख में प्यार के शब्दों को मूक कर देता है- यहाँ तक कि मैं तुम से भी अपना मुख छिपा कर अपने ओठों को तुम्हारे सुगन्धित केशों में दबा कर, अस्पष्ट स्वर में अपनी वासना की बात कहता हूँ- कह भी नहीं पाता, केवल अपने उत्तप्त श्वास की आग से अपना आशय तुम्हारे मस्तिष्क पर दाग देता हूँ। यही जुगुप्सापूर्ण और रहस्यमयी बात है जिस के कारण मैं तुम्हारे प्रेम के निष्कलंक आलोक में भी डरता रहता हूँ......
मैं तुम्हारे प्रेम की उस प्रोज्ज्वल उड़ान को नहीं पा सकती, पर उसे स्थायित्व देने वाली मैं ही तो हूँ। तुम जलते हुए अंगारे हो, मैं उस पर छायी हुई राख का पुंज। तुम धधकते हो, मैं उस भीषण ज्वाला की दीप्ति नहीं पाती; पर तुम अपनी अन्तज्र्वाला को बिखरा कर शान्त हो जाते हो, मैं तब भी तो अपनी अभ्यस्त स्निग्ध गर्मी लिये तुम्हें आवृत किये रहती हूँ... तुम मेरे अस्तित्व के भी प्राण हो, मैं तुम्हारी शक्ति की संरक्षिका मात्र। यह मेरा स्वार्थ नहीं है कि मैं तुम्हारी प्रलय-क्षम शक्ति को फूटने नहीं देती, अपने सुख के लिए छिपाये रखती हूँ। क्यों कि देखो, जब भी कृतित्व की आँधी हमारी ओर आती है तभी मैं अपना अस्तित्व खो कर उड़ जाती हूँ और तुम्हारे प्रोज्ज्वल ताप को और भी दीप्त हो लेने देती हूँ!...
गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल, शिष्य से बोले : 'कहाँ चला ले जाल अभी ? पहले मछलियाँ पकड़ तो ला ?'...
विश्व-नगर नगर में कौन सुनेगा मेरी मूक पुकार- रिक्ति-भरे एकाकी उर की तड़प रही झंकार- 'अपरिचित! करूँ तुम्हें क्या प्यार?' नहीं जानता हूँ मैं तुम को, नहीं माँगता कुछ प्रतिदान;...
रात की रौंदी हुई यह रेत फूहड़, भोर में किस लिखत से लहरा गयी- सुन्दर, अछूती, छविमयी? फाल्गुन शुक्ला सप्तमी...
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ- या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ, तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ-...
मैं मरा नहीं हूँ, मैं नहीं मरूँगा, इतना मैं जानता हूँ, पर इस अकेला कर देने वाले विश्वास को ले कर...
मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ। जब कभी पथ पर जाते हुए तुम्हारे अदृश्य चरणों की चाप मैं सुन लेती हूँ, और एक अकथ्य भाव से भर उठती हूँ जिसे तुम नहीं जानते, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ। जब कभी अनजाने में तुम्हारे अपूर्व सौन्दर्य की एक झाँकी मिल जाती है, और मैं उसे देखते-देखते संसार के प्रति अन्धी हो जाती हूँ, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ। प्रियतम! इस जीवन में और इस से पूर्व हजार बार मैं ने अपना जीवन तुम्हें अर्पण किया है, फिर भी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।...
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद! आँखों में आँसू बन चमकी तेरी कसक भरी-सी याद! आज सुना है युगों-युगों पर तेरे स्वर का मीठा मर्मर- जिसे डुबाये था अब तक जग का वह निष्फल रौरव-नाद!...
मैं गाती हूँ, पर गीतों के भाव जगाने वाला तू, मैं गति हूँ, पर मेरी गति में जीवन लाने वाला तू! मैं वीणा हूँ-या हूँ उस के टूटे तारों की वाणी- उस से सम्मोहन, संजीवन ध्वनि उपजाने वाला तू!...
जो था, सब हम ने मिटा दिया इस आत्मतोष से भरे कि उस के हमीं बनाने वाले हैं भर गया गगन में धुआँ हमारे कहते-कहते : 'स्वर्ग धरा पर हम ले आने वाले हैं!'...
भाले की अनी-सी बनी बगुलों की डार, फुटकियाँ छिट-फुट गोल बाँध डोलती सिहरन उठती है एक देह में कोई तो पधारा नहीं, मेरे सूने गेह में-...
अतिथि सब गये : सन्नाटा ज्वार आया था, गया : अब भाटा। कुछ काम, दोस्त? हाँ, बैठो, देखो, किस कुत्ते ने कौन पत्तल चाटा!...
जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में, सिमट कर भीतर कहीं पर संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर,...
जैसे तुझे स्वीकार हो! डोलती डाली, प्रकम्पित पात, पाटल-स्तम्भ विलुलित, खिल गया है सुमन मृदु-दल, बिखरते किंजल्क प्रमुदित, स्नात मधु से अंग, रंजित-राग केशर-अंजली से स्तब्ध-सौरभ है निवेदित:...
अकारण उदास भर सहमी उसाँस अपने सूने कोने (कहाँ तेरी बाँह?) मैं जाता हूँ सोने। फीके अकास के तारों की छाँह में बिना आस, बिना प्यास अन्धा बिस्वास ले, कि तेरे पास आता हूँ मैं तेरा ही होने।...
क्या यही है पुरुष की नियति कि बार-बार लोभ-वश -किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!) उसे कैसे माना जाय लोभ?-...
नहीं काँपता है अब अन्तर। नहीं कसकती अब अवहेला, नहीं सालता मौन निरन्तर! तुझ से आँख मिलाता हूँ अब, तो भी नहीं हुलसता है उर, किन्तु साथ ही कमी राग की देख नहीं होता हूँ आतुर।...
चरण पर धर चरण चरण पर धर सिहरते-से चरण, आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर- पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की...