हवाई यात्रा
फैला है पठार, सलवट की ओट बिछा है कन्धा : काली परती, भूरे ऊसर, तोतापरी खेत गेहूँ के, कितनी हैं थिगलियाँ पुराने इस कन्धे पर! सिलीं मेंड़ की या पगडंडी की जर्जर डोरी से- उपयोगी थिगलियाँ। कहीं पर किसी मनचले कलाकार की आँकी-बाँकी हरी लीक कुलिया की। कन्धे पर यह जमी हुई है चौसर : इतनी ऊँचे से गोटें तो नहीं दीखतीं पर घर पहचाने जाते हैं। इधर रहा यह गोल रहँट का : काले-चिट्टे चींटे खींच रहे हैं एक सुरमचू, सुरमेदानी नहीं दीखती : मस्से-सा कुएँ का मुँह है। उधर बिछे हैं ढेर नाज के-टीले खलिहानों के- सोने के मन-लोभन पाँसे। मैं तो हूँ उड़ रहा खिलाड़ी : जाने-अनजाने माने हूँ जोखम का है खेल हवाई यात्रा। पर नीचे चौसर के अगल-ब गल जो पाँसे डाले खेल बिछाये हरदम रहता- उस अपने आड़ी किसान की जोखम मुझ से बहुत बड़ी है- मैं जो अपनी एक जान को ही चिपटे हूँ- वह अपने आगे-पीछे सैकड़ों पीढिय़ाँ दाँव-दाँव पर बद देता है। ऊँचाई कम चली : शीघ्र ही वायुयान उतरेगा। बड़े शहर के ढंग और हैं : हम गोटें हैं वहाँ : दाँव गहरे हैं उस चौपट के।

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