क्यों
क्यों यह मेरी ज़िन्दगी फूटे हुए पीपे के तेल-सी बूँद-बूँद अनदेखी चुई काल की मिट्टी में रच गयी? क्यों वह तुम्हारी हँसी घास की पत्ती पर टँकी ओस-सी चमकने-चमकने को हुई कि अनुभव के ताप में उड़ गयी? क्यों, जब प्यार नहीं रहा तो याद मन में फँसी रह गयी? ज्योनार हो चुकी, मेहमान चले गये, बस पकवानों की गन्ध सारे घर में बसी रह गयी... क्यों यह मेरा सवाल अपनी कोंच से मुझे तड़पाता है रात-भर, रात भर जैसे टाँड़ में अखबारें की गड्डी में छिपा चूहा करता रहे कुतर-कुतर, खुसर-फुसर?

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