ओ तेरा यह अविकल मर्मर
ओ तेरा यह अविकल मर्मर! ओ पथ-रोधक चट्टानों को भी खंडित कर देने वाले! ओ प्रत्यवलोकन के हित भी रुक कर साँस न लेने वाले! विफल जगत् का हृदय चीर कर कर्म-तरी के खेने वाले! तू हँसता है, या तुझ को हँसती है कोई निर्दय नियति, तू बढ़ता है, या कि तुझे ले बही जा रही जीवन की गति! ओ अजस्र, ओ पीड़ा-निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर! तेरी गति में इन आँखों को पीड़ा ही पीड़ा क्यों दीखी? तीखेपन के कारण? पर मदिरा भी तो होती है तीखी! मदिरा में भी चंचल बुद्बुद, मदिरा भी करती है विह्वल; मदिरा में भी तो कोई सम्मोहन रहता ही है बेकल! पर-अजस्रता! इस गतिमान चिरन्तनता की मदिरा की मादकता में होती क्या झाँकी? कसक अजस्र एक मात्र पीड़ा की! ओ अजस्र ओ पीड़ा निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर! कुछ भी हो हम-तुम चिरसंगी इस जगती में बढ़ते ही बस जाने वाले, द्रुत गति, धीमे, विजित, विजेता; गतियुत, परिमित; आगे बढऩे को अभिप्रेरित- अपर नियन्त्रण किन्तु किसी से बाधित; तुम, उस अनुल्लंघ्य गति-क्रम से-मैं, पाषाण-हृदय प्रियतम से! ओ अजस्र, ओ पीड़ा-निर्झर! ओ तेरा यह अविकल मर्मर! प्रणयी निर्झर! आओ, हम दोनों के प्राणों में पीड़ा-झंझा के झोंके एक बवंडर आज उठावें-बाँध तोड़ कर सतत जगावें विवश पुकारें जो नभ पर छा जावें! एक मूक आह्वान, सदा एकस्वर, कहता जावे, कहता जावे, निर्झर दोनों ही के अन्तरतम की गूढ़ व्यथाएँ वे उद्विग्न, अबाध, अगाध, अकथ्य कथाएँ!

Read Next