होने का सागर
सागर जो गाता है वह अर्थ से परे है— वह तो अर्थ को टेर रहा है। हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है, जो अर्थ हमें बहलाता (कि सहलाता) है वह सागर में नहीं, हमारी मछली में है जिसे सभी दिशा में सागर घेर रहा है। आह, यह होने का अन्तहीन, अर्थहीन सागर जो देता है सीमाहीन अवकाश जानने की हमारी गति को: आह यह जीवित की लघु विद्युद्-द्रुत सोन-मछली केवल मात्र जिस की बलखाती गति से हम सागर को नापते क्या, पहचानते भी हैं!

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