उसे नहीं जो सरसाता है स्वाति-बूँद, जो हरसाता है सागर-तट की सीपी की, तल पर ला सरसाता है। ताकि सहज मुक्ता वह दे दे-सीपी सोती। नहीं! साधुवाद उस को जो कहीं अनवरत भर कौशल से हाथ अनमने निर्मम बल से एक-एक सीपी का मुख खोला करता है और मर्म में रख देता है कनी रेत की, एक अनी-सी कसके जो, पर रक्खे अक्षत, मिले दर्द से जिस के कर से सीपी का उर जिस के वर से रच ले मोती!