मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन, मैं हूँ केवल पतदल--आसन, तुम सहज बिराजे महाराज। ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि मैं ही वसन्त का अग्रदूत, ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि। तुम मध्य भाग के, महाभाग!-- तरु के उर के गौरव प्रशस्त मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त, तुम अलि के नव रस-रंग-राग। देखो, पर, क्या पाते तुम "फल" देगा जो भिन्न स्वाद रस भर, कर पार तुम्हारा भी अन्तर निकलेगा जो तरु का सम्बल। फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज या तुम बाँध कर रँगा धागा; फल के भी उर का, कटु, त्यागा, मेरा आलोचक एक बीज