शशि जब जा कर
शशि जब जा कर फिर आये-सरसी तब शून्य पड़ी थी! सुख से रोमांचित होती कुमुदिनी कहीं न खड़ी थी। शशि मन में हँस कर बोले-'मुग्धा से परिणति होगी? सरसी में शीश छिपा कर मुझ से क्या मान करोगी?' ओ दर्प-मूढ़ शशि! सोचो-मानिनि क्या मान छिपाती? या उस में आवृत हो कर अधिकाधिक सम्मुख आती? वह छिपी लिये यह इच्छा-भूला सुख पुन: जगा ले- तेरा ही शीतल चंचल कर उस को ढूँढ़ निकाले!

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