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जिस मन्दिर में मैं गया नहीं उस की देहरी से भीतर चिकनी गच पर देख और पैरों की छाप...

मालती की गन्ध बोलेगी तुम अभी मत बोलना कह गया है जो पपीहा उस व्यथा की परत तुम मत खोलना...

कवि के प्रति कवि दर्प किया : शक्ति नहीं मिली। सुख लिया-छीन-छीन कर भर-भर सुख लिया : अभिव्यक्ति नहीं मिली।...

कहती है पत्रिका चलेगा कैसे उन का देश? मेहतर तो सब रहे हमारे हुए हमारे फिर शरणागत-...

ओ हँसते हुए फूल! इधर तो देख फूल की आँख तुझे देखती रही अनझिप तेरी आँखों में अब...

हे महाबुद्ध ! मैं मन्दिर में आई हूँ रीते हाथ : फूल मैं ला न सकी ।...

मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो, दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो! यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान, 'प्रेम-स्निग्ध है मेरा उर भी', तत्क्षण तुम यह लेना जान!...

मोह-बन्ध हम दोनों एक बार जो मिले रहे फिर मिले, इसे क्या कहूँ : कि दुनिया इतनी छोटी है-...

कवि, एक बार फिर गा दो! एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो! अब मीलित हैं मेरी आँखें पर मैं सूर्य देख आया हूँ; आज पड़ी हैं कडिय़ाँ पर मैं कभी भुवन भर में छाया हूँ;...

आओ, इस अजस्र निर्झर के तट पर प्रिय, क्षण-भर हम नीरव रह कर इस के स्वर में लय कर डालें अपने प्राणों का यह अविरल रौरव! प्रिय! उस की अजस्र गति क्या कहती है?...

चुप-चाप सरकती है नदी, चुप-चाप झरती है बरफ़ नदी के जल में गल जाती है।...

छिलके के भीतर छिलके के भीतर छिलका। क्रम अविच्छिन्न। तो क्या?...

तुम जो कुछ कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका : सुख का आविष्कार तुम्हारा? बार-बार वह सहा जा चुका! रहने दो, वह नहीं तुम्हारा, केवल अपना हो सकता जो मानव के प्रत्येक अहं में सामाजिक अभिव्यक्ति पा चुका!...

पत्थरों के उन कँगूरों पर अजानी गन्ध-सी अब छा गयी होगी उपेक्षित रात। बिछलती डगर-सी सुनसान सरिता पर ठिठक कर सहम कर थम गयी होगी बात।...

दिन छिपे मलिना गये थे रूप उन को चाँदनी नहला गयी। थक गयी थी याद संकुल लोक में...

रेंक रे रेंक गधे रेंक रे रेंक! कुटिया के पीछे का आँगन डेढ़ बित्ते का छेंक ले छेंक गधे रेंक रे रेंक! रेंक रे रेंक गधे रे रेंक...

मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है क्यों कि तुम हो। फुटकी की लहरिल उड़ान...

नहीं! विदा का क्षण समझ में नहीं आता। कहने के लिए बोल नहीं मिलते। और बोल नहीं हैं तो...

अपने तप्त करों में ले कर तेरे दोनों हाथ- मैं सोचा करती हूँ जाने कहाँ-कहाँ की बात! तेरा तरल-मुकुर क्यों निष्प्रभ शिथिल पड़ा रहता है जब मेरे स्तर-स्तर से ज्वाला का झरना बहता है?...

रात गाड़ी रुक गयी वीरान में। नींद से जागा चमक कर, सुना पिछले किसी डिब्बे में किसी ने मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक...

धुएँ का काला शोर: भाप के अग्निगर्भ बादल: बिना ठोस रपटन में उगते, बढ़ते, फूलते अन्तहीन कुकुरमुत्ते, ...

क्या डर ही बसा हुआ है सब में- डर ही से भागता है पाँचवाँ सवार?...

रात में मेरे भीतर सागर उमड़ा और बोला : तुम कौन हो? तुम क्यों समझते हो कि तुम हो?...

जाने किस दूर वन-प्रान्तर से उड़ कर आया एक धूलि-कण। ग्रीष्म ने तपाया उसे, शीत ने सताया उसे, भव ने उपेक्षा के समुद्र में डुबाया उसे,...

तुम वहाँ हो मन्दिर तुम्हारा यहाँ है।...

राण अगर निर्झर-से होते पृथ्वी-सा यह मेरा जीवन- तू होता सुदूर वारिधि-सा तेरी स्मृति लहरों की गर्जन; प्रणय! अंक तेरे में खोने मैं युग-युग बहती ही बहती, अथक स्वरों से, अनगिन दिन तक वही बात बस कहती रहती!...

शाम बाहर देख आया हूँ (और भी जाते हैं, बीड़ी-सिगरेट फूँक आते हैं या कि पान खाते हैं और जिस देह में है ख़ून नहीं, रसना में रस नहीं,...

आज सबेरे अचरज एक देख मैं आया। एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे एक तार पर बिजली के वे सटे हुए बैठे थे-...

हमने शिखरों पर जो प्यार किया घाटियों में उसे याद करते रहे! फिर तलहटियों में पछताया किए...

शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में त्राहि! त्राहि! शरण-शरण! रुकते नहीं युगल चरण...

मैं ने कहा : अपनी मनःस्थिति मैं बता नहीं सकता। पर अगर अपने को उपन्यास का चरित्र बताता, तो इस समय अपने को एक शराबखाने में दिखाता, अकेले बैठ कर...

खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!...

जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ? उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ? कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह- जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह?...

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है। अब भी ये रौंदे हुए खेत हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के ...

वंचना है चाँदनी सित, झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार- शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार! दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता,...

मरता है? जिस का पता नहीं उस से डरता है? -गा! जीता है?...

है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया। उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गयी, सुख की स्मिति कसक-भरी, निर्धन की नैन-कोरों में काँप गयी, बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गयी।...

तुम मेरी एक निजी घड़ी जिस में मैं ओक भर-भर समय पूरता हूँ और वह बालू हो कर रीत जाता है।...

‘भई, आज हम बहुत उदास हैं।’ ‘क्यों? भूल गये या क्या सूख गये आनन्द के वे सारे सोते जो तुम्हारे इतनी पास हैं?’...

झरने दो साँस-साँस से भरने दो धूल! धूसरित करने दो देह को-जो दूध की धुली तो नहीं! सिहरने दो। झरने दो।...