कवि के प्रति कवि
कवि के प्रति कवि दर्प किया : शक्ति नहीं मिली। सुख लिया-छीन-छीन कर भर-भर सुख लिया : अभिव्यक्ति नहीं मिली। दु:ख दिया, दु:ख पिया, दु:ख जिया : मुक्ति नहीं मिली। कुछ लिखा : वह हाट-हाट बिका फूले हम, सफल हुए : मोह पर झरा नहीं, टँगा-सा रहा टिका हृदय की कली नहीं खिली। बँधते हम रूप के दाम में रहे, स्रजते पर सृष्टि से चिपटते, आलोक-प्रभव पर लय की लहर से लिपटते रमते हम काम में, राम में, नाम में रहे : अनासक्ति नहीं मिली। नम: कवि, जो भी तुम नाम ही नाम छोड़ गये; जो जब-जब हम शास्त्र रच मुदित हुए संचित हमारा अहंकार स्मित-भर से तोड़ गये; मरु की ओर अदृश्य बढ़ी अन्त:सलिला को सहज, कुछ कहे बिन फिर भीतर को मोड़ गये।

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