शिशिर की राका-निशा
वंचना है चाँदनी सित, झूठ वह आकाश का निरवधि, गहन विस्तार- शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार! दूर वह सब शान्ति, वह सित भव्यता, वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार- इधर-केवल झलमलाते चेतहर, दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़! पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार, बाँस की टूटी हुई टट्टी, लटकती एक खम्भे से फटी-सी ओढऩी की चिन्दियाँ दो-चार! निकटतर-धँसती हुई छत, आड़ में निर्वेद, मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा। निकटतम-रीढ़ बंकिम किये, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा वन्य बिलार- पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार! गा गया सब राजकवि, फिर राजपथ पर खो गया। गा गया चारण, शरण फिर शूर की आ कर, निरापद सो गया। गा गया फिर भक्त ढुलमुल चाटुता से वासना को झलमला कर, गा गया अन्तिम प्रहर में वेदना-प्रिय, अलस, तन्द्रिल, कल्पना का लाड़ला कवि, निपट भावावेश से निर्वेद! किन्तु अब-नि:स्तब्ध-संस्कृत लोचनों का भाव-संकुल, व्यंजना का भीरु, फटा-सा, अश्लील-सा विस्फार। झूठ वह आकाश का निरवधि गहन विस्तार- वंचना है चाँदनी सित, शिशिर की राका-निशा की शान्ति है निस्सार!

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