औपन्यासिक
मैं ने कहा : अपनी मनःस्थिति मैं बता नहीं सकता। पर अगर अपने को उपन्यास का चरित्र बताता, तो इस समय अपने को एक शराबखाने में दिखाता, अकेले बैठ कर पीते हुए-इस कोशिश में कि सोचने की ताक़त किसी तरह जड़ हो जाए। कौन या कब अकेले बैठ कर शराब पीता है? जो या जब अपने को अच्छा नहीं लगता-अपने को सह नहीं सकता। उस ने कहा : हूँ! कोई बात है भला? शराबखाना भी (यह नहीं कि मुझे इस का कोई तजुरबा है, पर) कोई बैठने की जगह होगी-वह भी अकेले? मैं वैसे में अपने पात्र को नदी किनारे बैठाती-अकेले उदास बैठ कर कुढ़ने के लिए। मैं ने कहा : शराबखाना न सही बैठने के लायक जगह! पर अपने शहर में ऐसा नदी का किनारा कहाँ मिलेगा जो बैठने लायक हो-उदासी में अकेले बैठ कर अपने पर कुढ़ने लायक? उस ने कहा : अब मैं क्या करूँ अगर अपनी नदी का ऐसा हाल हो गया है? पर कहीं तो ऐसी नदी ज़रूर होगी? मैं ने कहा : सो तो है-यानी होगी। तो मैं अपने उपन्यास का शराबखाना क्या तुम्हारे उपन्यास की नदी के किनारे नहीं ले जा सकता? उस ने कहा : हुँ! यह कैसे हो सकता है? मैं ने कहा : ऐसा पूछती हो, तो तुम उपन्यासकार भी कैसे बन सकती हो? उस ने कहा : न सही-हम नहीं बनते उपन्यासकार। पर वैसी नदी होगी तो तुम्हारे शराबखाने की ज़रूरत क्या होगी, और उसे नदी के किनारे तुम ले जा कर ही क्या करोगे? मैं ने ज़िद कर के कहा : ज़रूर ले जाऊँगा! अब देखो, मैं उपन्यास ही लिखता हूँ और उसमें नदी किनारे शराबखाना बनाता हूँ! उस ने भी ज़िद कर के कहा : वह बनेगा ही नहीं! और बन भी गया तो वहाँ तुम अकेले बैठ कर शराब नहीं पी सकोगे! मैं ने कहा : क्यों नहीं? शराबखाने में अकेले शराब पीने पर मनाही होगी? उस ने कहा : मेरी नदी के किनारे तुम को अकेले बैठने कौन देगा, यह भी सोचा है? तब मैं ने कहा : नदी के किनारे तुम मुझे अकेला नहीं होने दोगी, तो शराब पीना ही कोई क्यों चाहेगा, यह भी कभी सोचा है? इस पर हम दोनों हँस पड़े। वह उपन्यास वाली नदी और कहीं हो न हो, इसी हँसी में सदा बहती है, और वहाँ शराबखाने की कोई ज़रूरत नहीं है।

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