प्रातः कुमुदिनी
खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!

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