वहाँ रात
पत्थरों के उन कँगूरों पर अजानी गन्ध-सी अब छा गयी होगी उपेक्षित रात। बिछलती डगर-सी सुनसान सरिता पर ठिठक कर सहम कर थम गयी होगी बात। अनमनी-सी धुन्ध में चुपचाप हताशा में ठगे-से, वेदना से, क्लिन्न, पुरनम टिमकते तारे। हार कर मुरझा गये होंगे अँधेरे से बिचारे- विरस रेतीली नदी के दोनों किनारे। रुके होंगे युगल चकवे बाँध अन्तिम बार जल पर वृत्त मिट जाते दिवस के प्यार का- अपनी हार का। गन्ध-लोभी व्यस्त मौना कोष कर के बन्द पड़ी होगी मौन समेटे पंख, खींचे डंक, मोम के निज भौन में निष्पन्द! पंचमी की चाँदनी कँपती उँगलियों से आँख पथरायी समय की आँज जावेगी। लिखत को 'आज' की फिर पोंछ 'कल' के लिए पाटी माँज जावेगी। कहा तो सहज, पीछे लौट देखेंगे नहीं- पर नकारों के सहारे कब चला जीवन? स्मरण को पाथेय बनने दो : कभी भी अनुभूति उमड़ेगी प्लवन का सान्द्र घन भी बन!

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