जीवन का मालिन्य
जीवन का मालिन्य आज मैं क्यों धो डालूँ? उर में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ? कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाह- जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साह? विश्व-नगर की गलियों में खोये कुत्ते-सा झंझा की प्रमत्त गति में उलझे पत्ते-सा हटो, आज इस घृणा-पात्र को जाने भी दो टूट- भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!

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