जाने किस दूर वन-प्रांतर से उड़ कर
जाने किस दूर वन-प्रान्तर से उड़ कर आया एक धूलि-कण। ग्रीष्म ने तपाया उसे, शीत ने सताया उसे, भव ने उपेक्षा के समुद्र में डुबाया उसे, पर उस में थी कुछ ऐसी एक धीरता- जीवन-समर में थी ऐसी कुछ वीरता, जग सारा हार गया, डाल हथियार गया, अपने कलंक की ही कालिमा के बिन्दु में डूबा वह, या कि आत्म-ताडऩा के सिन्धु में? और वह धूलि-कण द्रौपदी के पट जैसा, वारिधि के तट जैसा वामन की माँग-सा अनन्त, भूख की पुकार-सा दुरन्त बढ़ता चला गया- व्योम-भर छा गया- शून्यता भी पूर्ति से छलक गयी- तिमिर में दामिनी दमक गयी- धूलि-कण में विभूति-किरण चमक गयी! रेणु थी जो धूलि थी- आज वह हो गयी शिरसावतंस इस धूल-भरे जग की - वही जो कभी थी- जो है- रेणु तेरे पग की! यह अब है- जब मैं ने पाया तेरा प्यार! ओ सुकुमार- सौरभ-स्निग्ध- ओ सुकुमार! यह गौरव है तेरा ही उपहार! बिन पाये क्या था मैं, पर अब क्या न हुआ पा तेरा प्यार! धूलि स्वयं, पर आज मुझे है तुच्छ धूलि से भी संसार! ओ सकुमार- सौरभ स्निग्ध- ओ सुकुमार! ऐसा अब जब मैं ने पाया तेरा प्यार!

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