साम्राज्ञी का नेवैद्य-दान
हे महाबुद्ध ! मैं मन्दिर में आई हूँ रीते हाथ : फूल मैं ला न सकी । औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता । जो मुझे सुनाती जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत— खोलती रूप जगत़् के द्वार, जहाँ तेरी करुणा बुनती रहती है भव के सपनों, क्षण के आनन्दों के रह : सूत्र अविराम— उस भोली मुग्धा को कँपती डाली से विलगा न सकी । जो कली खिलेगी जहाँ, खिली, जो फूल जहाँ है, जो भी सुख जिस भी डाली पर हुआ पल्लवित, पुलकित, मैं उसे वहीं पर अक्षत, अनाघ्रात,अस्पृष्ट, अनाविल, हे महाबुद्ध ! अर्पित करती हूँ तुझे । वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का, वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा अपने सुन्दर आनन्द-निमिष का, तेरा हो, हे विगतागत के, वर्त्तमान के, पद्मकोश ! हे महबुद्ध !

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