क्योंकि तुम हो
मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है क्यों कि तुम हो। फुटकी की लहरिल उड़ान शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अँक जाती है जुगनू की छोटी-सी द्युति में नये अर्थ की अनपहचाने अभिप्राय-सी किरण चमक जाती है क्यों कि तुम हो। जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है क्यों कि तुम हो। कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं भरता हूँ अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ क्यों कि तुम हो। तुम तुम हो; मैं-क्या हूँ? ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूँ, पर कवि हूँ स्रष्टा, द्रष्टा, दाता : जो पाता हूँ अपने को भी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूँ पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा, अनिर्वच आह्वाद-सा लुटाता हूँ क्यों कि तुम हो।

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