फिर भोर एकाएक
‘भई, आज हम बहुत उदास हैं।’ ‘क्यों? भूल गये या क्या सूख गये आनन्द के वे सारे सोते जो तुम्हारे इतनी पास हैं?’ ‘हैं, तो, पर दीखें कैसे, जब तक आँखों में तारा-रज का अंजन न हो?’ ‘आँखें तुम्हारी तो स्वयं धारक हैं- उन के बारे में ऐसा मत कहो!’ ‘सोते हैं तो सोते क्यों हैं? उमड़ते क्यों नहीं कि हम अंजुरी भर सकें? चलो, न भी बुझे प्यास, न सही : ओठ तो तर कर सकें? ‘भई, एक बार धीरज से देखो तो : उस से दीठ धुल जाएगी। सोता है सोया नहीं, झरना है, झरता है : देखो भर : अभी एक फुहार आएगी- बुझ ही नहीं, भूल भी जाएगी प्यास-’ ‘हम नहीं, हम नहीं; हम हैं, हम रहेंगे उदास!’ यों बात (कुछ कही, कुछ अनकही) रात बड़ी देर तक चलती रही, चाँदनी अलक्षित उपेक्षित ढलती रही। उदासी भी, मानो पाँसे की तरह खेली जाती रही- कभी इधर, कभी उधर : हम तुम दोनों को एक महीन जाल में उलझाती रही जिस से हम परस्पर एक-दूसरे को छुड़ाते रहे : हारते रहे : पर जीत का आभास हर बार पाते रहे। फिर भोर एकाएक ठगे-से हम आगे- तुम अपने हम अपने घर भागे।

Read Next