मृत्युर्धावति पंचमः
क्या डर ही बसा हुआ है सब में- डर ही से भागता है पाँचवाँ सवार? और उन डरे हुओं के डर से भाग रहे हैं सब मानते हुए अपने को अशरण, बे-सहार : क्या कोई नहीं है द्वार इस भय के पार? इससे क्या नहीं है निस्तार? या कि वह भय ही है एक द्वार उस तक जो सब को दौड़ाता है निर्विकार?

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