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लोहे और कंकरीट के जाल के बीच पत्तियाँ रंग बदल रही हैं। एक दुःसाहसी...

निमिष-भर को सो गया था प्यार का प्रहरी- उस निमिष में कट गयी है कठिन तप की शिंजिनी दुहरी सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार- खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार!...

मानस-मरु में व्यथा-स्रोत स्मृतियाँ ला भर-भर देता था, वर्तमान के सूनेपन को भूत द्रवित कर देता था, वातावलियों से ताडि़त हो लहरें भटकी फिरती थीं- कवि के विस्तृत हृदय-क्षेत्र में नित्य हिलोरें करती थीं।...

एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई किरणों के जाल में से साथ तेरे घूमा था। फेनिल प्रपात पर छाये इन्द्र-धनु की फुहार तले मोर-सा प्रमत्त-मन झूमा था...

उसे नहीं जो सरसाता है स्वाति-बूँद, जो हरसाता है सागर-तट की सीपी की, तल पर ला सरसाता है। ताकि सहज मुक्ता वह दे दे-सीपी सोती।...

बेमंज़िल सड़क के किनारे एकाएक गुलाब की झाड़ी। व्याख्या नहीं, सफाई नहीं-निपट गुलाब। बेमंजिल शनिवारी सैरगाड़ी में मैं।...

झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं। रंग-बिरंगी हर थिगली संसार एक। ...

प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली मुझ को कंचन हुई तुम्हारे चंल चरणों की यह धूली। आयी थी तो जाना भी था, फिर भी आओगी, दुख किस का? एक बार जब दृष्टि-करों रसे पद-चिह्नों की रेखा छू ली।...

माँगा नहीं, यदपि पहचाना, पाया कभी न, केवल जाना-परिचिति को अपनापा माना। दीवाना ही सही, कठिन है अपना तर्क तुम्हें समझाना- इह मेरा है पूर्ण, तदुत्तर परलोकों का कौन ठिकाना!...

सभी से मैं ने विदा ले ली : घर से, नदी के हरे कूल से, इठलाती पगडंडी से पीले वसन्त के फूलों से...

आँगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आँगन । भवन के ओर-छोर...

प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, देवता उनमें जो विराजें ...

निशा के बाद उषा है, किन्तु देख बुझता रवि का आलोक अकारण हो कर जैसे मौन ज्योति को देते विदा सशोक तुम्हारी मीलित आँखें देख किसी स्वप्निल निद्रा में लीन हृदय जाने क्यों सहसा हुआ आद्र्र, कम्पित-सा, कातर, दीन!...

तेरी आँखों में पर्वत की झीलों का नि:सीम प्रसार मेरी आँखों बसा नगर की गली-गली का हाहाकार, तेरे उर में वन्य अनिल-सी स्नेह-अलस भोली बातें मेरे उर में जनाकीर्ण मग की सूनी-सूनी रातें!...

वन में एक झरना बहता है एक नर कोकिल गाता है वृक्षों में एक मर्मर कोंपलों को सिहराता है,...

क्या दिया-लिया? जैसे जब तारा देखा सद्यःउदित ...

आज तुम से मिल सकूँगा, था मुझे विश्वास! आज जब कि बबूल पर भी सिरिस-कोमल बौर पलता- मंजरी की प्यालियों में ओस का मधु-दौर चलता; खेलती थी विजन में सुरभि मलय की साँस।...

मधु मंजरि, अलि, पिक-रव, सुमन, समीर- नव-वसन्त क्या जाने मेरी पीर! प्रियतम क्यों आते हैं मधु को फूल, जब तेरे बिन मेरा जीवन धूल?...

विफले! विश्वक्षेत्र में खो जा! पुंजीभूते प्रणय-वेदने! आज विस्मृता हो जा! क्या है प्रेम? घनीभूता इच्छाओं की ज्वाला है! क्या है विरह? प्रेम की बुझती राख-भरा प्याला है!...

नहीं, नहीं, नहीं! मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया पर क्या भुलाने को? मैंने अपने दर्द को सहलाया ...

कहाँ से उठे प्यार की बात जब कदम-कदम पर कोई असमंजस में डाल दे? जैसे शहर की त्रस्त क्षिति-रेखा पर रात...

लेकिन हम जिन की अपेक्षाएँ अतीत पर केन्द्रित हो गयी हैं और भविष्य ही जिन की मुख्य स्मृति हो गयी है क्यों कि हम न जाने कब से भविष्य में जी रहे हैं-...

यह वसन्त की बदली पर क्या जाने कहीं बरस ही जाय? विरस ठूँठ में कहीं प्यार की कोंपल एक सरस ही जाय? दूर-दूर, भूली ऊषा की सोयी किरण एक अलसानी- उस की चितवन की हलकी-सी सिहरन मुझे परस ही जाय?...

सूप-सूप भर धूप-कनक यह सूने नभ में गयी बिखर चौंधाया...

मेरे प्राण-सखा हो बस तुम एक, शिशिर! छायी रहे चतुर्दिक् शीतल छाया, रोमांचित, ईषत्कम्पित होती रहे क्षीण यह काया; ऊपर नील गगन में, धवल-धवल, कुछ फटे-फटे से,...

उतना-सा प्रकाश कि अँधेरा दीखने लगे, उतनी-सी वर्षा कि सन्नाटा सुनाई दे जाए;...

कितनी दूरियों से कितनी बार कितनी डगमग नावों में बैठ कर मैं तुम्हारी ओर आया हूँ ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!...

दिन के उजाले में अनेकों नाम सब के समाज में हँसी-हँसी सहज पुकारना...

सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! घोर जन की गूँज-सा आयास जग पर छा रहा है, दामिनी की तड़प-सा उल्लास लुटता जा रहा है- ऊपरी इन हलचलों की आड़ में आकाश अविचल।...

लौटे तो लौट चले पाँव-पाँव, मन को यहीं इसी देहरी पर छोड़ चले जीवन भर उड़ा किये...

मृत्यु अन्त है सब कुछ ही का फिर क्यों धींगा-धींगी, देरी? मुझे चले ही जाना है तो बिदा मौन ही हो फिर मेरी! होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो- नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काटो, नाव बहा दो!...

जारिन कैसी हूँ मैं नाथ! झुका जाता लज्जा से माथ! छिपे आयी हूँ मन्दिर-द्वार छिपे ही भीतर किया प्रवेश। किन्तु कैसे लूँ वदन निहार-छिपे कैसेे हो पूजा शेष!...

उमसती साँझ हिना की गन्ध किसी की याद कैसे-कैसे प्राणलेवा...

मुक्त बन्दी के प्राण! पैरें की गति शृंखल बाधित, काया कारा-कलुषाच्छादित पर किस विकल प्रेरणा-स्पन्दित उद्धत उस का गान! अंग-अंग उस का क्षत-विह्वल हृदय हताशाओं से घायल,...

भूल कर सवेरे देहात की सैर करने गया था वहाँ मैं ने देखा...

तंद्रा में अनुभूति उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे। मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी...

तुम चिर-अखंड आलोक! तुम खर-निदाघ-ज्वाल की ऊध्र्वंग तप्त पुकार तुम सघन-पावस व्योम से उल्लास धारासार, तुम शीत के विच्छिन्न धूमिल कम्पमय संसार-...

लेकिन वे तो फिर आएँगे फिर रौंदे जाएँगे खेत ऊसरों में फिर झूमेंगे बिस खोपड़े, सँपोले...

उसे मरे बरस हो गये हैं। दस-या बारह, अठारह, उन्नीस- या हो सकता है बीस?-...

आँख ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं। भावना से छुआ पर मन ने पहचाना नहीं। राह मैं ने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आये भी, गये भी, -कदाचित्, कई बार-...