महानगर: कुहरा
झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं। रंग-बिरंगी हर थिगली संसार एक। सीली सड़कों पर कहराती ठिलती जाती ये अंगार-नैन गाड़ियाँ बनाती जाती है आवर्त्त-विवर्त्त अनवरत बांध रहीं उन अधर-टँके सब संसारों को एक कुंडली में, जिस पर होगा आसन किस निराधार नारायण का? ये कितने निराधार नर क्षण-भर हर चादर की ओट उझक तिर-घिर आते हैं एक पिघलती सुलगन के घेरे में: ऊभ-चूभ कर पुनः डूबने को— चादर की ओट या कि गाड़ियों की अंगार-कगारी तमोनदी में। ओ नर! ओ नारायण! उभय-बन्ध ओ निराधार!

Read Next