यात्री
प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, देवता उनमें जो विराजें परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों कराल हों, स्त्रैण हों, अमूर्त्त हों (या धूर्त हों) किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा— न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के) न जुटा पाथेय कुछ— मन्दिरों में न जा, न जा! बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है, चलता जा मांग कि यात्रा लम्बी हो; पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले; परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले, मांग की यात्रान्त न हो; पथ पर ही भीतर से पकता तू बाहर सहज गलता जा। आज बोधि का धीमा स्वर सुना: तीर्थों में न भी हो पानी —या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता— पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी: कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही। मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है? तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही, वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी, मूर्ति की भी अर्थवत्ता। पग-पग पर तीर्थ है, मन्दिर भी बहुतेरे हैं; तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से, हर पग से, हर साँस से कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा, पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी!

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