प्राण तुम्हारी पद-रज फूली
प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली मुझ को कंचन हुई तुम्हारे चंल चरणों की यह धूली। आयी थी तो जाना भी था, फिर भी आओगी, दुख किस का? एक बार जब दृष्टि-करों रसे पद-चिह्नों की रेखा छू ली। वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी, गीत शब्द का कब अभिलाषी? अन्तर में पराग-सी छायी है स्मृतियों की आशा-धूली। प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली।

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