तंद्रा में अनुभूति
तंद्रा में अनुभूति उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे। मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की कड़ी-कड़ी। बोला हृदय, 'लौट कर देखो प्रतिमा खो मत जाय कहीं!' किन्तु कहीं वह स्वप्न न निकले-इस से साहस हुआ नहीं! हाय, अवस्था कैसी थी वह! वज्राहत-सा हृदय रहा जाना जब तब अकथ व्यथा से अंग-अंग था कसक रहा। यही रहेगा क्या प्रियतम! अब सदा के लिए अपना प्यार? तन्द्रा में अनुभूति, किन्तु जागृति में केवल पीड़ा-भार?

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