सुमुखि मुझको शक्ति दे
सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! घोर जन की गूँज-सा आयास जग पर छा रहा है, दामिनी की तड़प-सा उल्लास लुटता जा रहा है- ऊपरी इन हलचलों की आड़ में आकाश अविचल। दे मुझे सामथ्र्य ध्रुव-सा चिर-अचंचल रह सकूँ मैं! सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! शोर से पागल जगत् में घुमड़ती हैं वेदनाएँ- घोंटती है नियति मुट्ठी वे न बाहर फूट आएँ- बन्धनों के विश्व में, हे बन्ध-मुक्ते! हे विशाले! दे मुझे उन्माद इतना मुग्ध सरि-सा बह सकूँ मैं! सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! रो रहे हैं लोग, 'जग की चोट को हम सह न पाते- मौत चारों ओर है,' सब ओर स्वर हैं बिलबिलाते। तू, जिसे भव की कठिनतम चोट ने कोमल बनाया- शक्ति दे, उद्भ धार तुझ को घात सारे सह सकूँ मैं! सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! रात सारी रात रो कर ओस-कण दो छोड़ जाती, साँझ तम में जीर्ण अपना प्राण-धागा तोड़ जाती, मौन, असफल मौन ही फल-सा हुआ है प्राप्त जग को- मुखर-रूपिणि! दान दे यह प्यार अपना कह सकूँ मैं! सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं! गहन जग-जंजाल में भी राह अपने हित निकालूँ, उलझ काँटों में पुरानी जीर्ण केंचुल फाड़ डालूँ- कूल-हीन असीम के उस पार तक फैला भुजाएँ- अडिग प्रत्यय से उमड़ कर हाथ तेरा गह सकूँ मैं! सुमुखि, मुझ को शक्ति दे वरदान तेरा सह सकूँ मैं!

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