मुक्त है आकाश
निमिष-भर को सो गया था प्यार का प्रहरी- उस निमिष में कट गयी है कठिन तप की शिंजिनी दुहरी सत्य का वह सनसनाता तीर जा पहुँचा हृदय के पार- खोल दो सब वंचना के दुर्ग के ये रुद्ध सिंहद्वार! एक अन्तिम निमिष-भर के ही लिए कट जाय मायापाश, एक क्षण-भर वक्ष के सूने कुहर को झनझना कर चला जाए झलस कर भी तप्त अन्तिम मुक्ति का प्रश्वास- कब तलक यह आत्म-संचय की कृपणता! यह घुमड़ता त्रास! दान कर दो खुले कर से, खुले उर से होम कर दो स्वयं को समिधा बना कर! शून्य होगा, तिमिरमय भी, तुम यही जानो कि अनुक्षण मुक्त है आकाश!

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