शिशिर के प्रति
मेरे प्राण-सखा हो बस तुम एक, शिशिर! छायी रहे चतुर्दिक् शीतल छाया, रोमांचित, ईषत्कम्पित होती रहे क्षीण यह काया; ऊपर नील गगन में, धवल-धवल, कुछ फटे-फटे से, अपने ही आन्तरिक क्षोभ से सकुचे, कटे-कटे से, जीवन में उद्देश्यहीन-सी गति से आगे बढ़ते बादल- घिरे रहें बादल, पर बरस न पावें- मेरे भी-मैं रहूँ नियन्त्रित, मूक, यदपि आँखें भर आवें। अरे ओ मेरे प्राण-सखा, शिशिर! सूनी-सूनी, खड़ी ठिठुरती, पर्णहीन वृक्षों की पाँत, सिर पर काली शाखें मानो झुलस गये हों गात; कहीं न फूल न पत्ते, अंकुर तक भी दीख न पावें, नहीं सिद्धि के सुखद फलों की स्मृतियाँ हमें चिढ़ावें- सम-दु:खी ओ विधुर शिशिर! केवल दूर खड़ी, सकुचाती, कुछ-कुछ डरी हुई-सी, आगे बढ़ती, फिर-फिर रुक-रुक जाती, सहम गयी-सी, वह-भावी वसन्त ही आशा-वह, तेरी जीवन-आधार! सखे! सदा वह दूर रहेगी-निष्कलंक वह आभा, हम-तुम उस को छू न सकेंगे-हम-तुम, जिनके कर कलुषित हैं अन्तर्दाह धुएँ से! चाहते ही हम रह जावेंगे, नहीं कभी पावेंगे! फिर भी-वैसी ही मेरे प्राणों में रहे अनबुझी आशा, झिपती चाहे जावे, किन्तु न बुझने पावे! इन प्राणों में, जो होते ही रहे सदा विफल-प्रयास- कभी न कुछ भी कर पाये-रोने तक को समझे आयास! केवल भर रहे अस्फुट आकांक्षाओं से- भरे रहे, बस! भरे रहे, हा! फूट न पाये। यह साकांक्ष विफलता ही रहे धुरी उस मैत्री की जिस पर घूम रहे हैं प्राण, पा कर साथ तुम्हारा- अरे, समदु:खी, सहभोगी, ओ वंचित प्राण-सखा, शिशिर!

Read Next