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दूज का चाँद- मेरे छोटे घर-कुटीर का दिया तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आँगन में सहमा-सा रख दिया गया ।...

ठीक है, कभी तो कहीं तो चला जाऊँगा पर अभी कहीं जाना नहीं चाहता। अभी नभ के समुद्र में शरद के मेघों की मछलियाँ किलोलती हैं...

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे!...

(वसन्त के एक दिन) फूल कांचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली,...

आँगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आँगन ! भवन के ओर-छोर...

सूनी-सी साँझ एक दबे-पाँव मेरे कमरे में आई थी । मुझ को भी वहाँ देख थोड़ा सकुचायी थी ।...

इस लिए कि मैं कोई नहीं हूँ मैं उपकरण हूँ जिन के काम आया हूँ...

कितने पक्षियों की मिली-जुली चहचहाट में से अलग गूँज जाती हुई एक पुकार : मुखड़ों-मुखौटों की कितनी घनी भीड़ों में सहसा उभर आता एक अलग चेहरा :...

मेरे उर में जिस भव्य आराधना का उपकरण हो रहा है, तुम उस के लक्ष्य, मेरे आराध्य, नहीं हो। मेरे उरस्थ मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम-उस प्रेमव्रत के सम्यक् उद्यापन की कामना में निरत मेरी उग्र शक्ति-ही मेरी आराध्य है। तुम? तुम हो उस आराधना के आरती-दीप, मेरे सहयोगी, मेरी उपासना को दीप्ति देने वाले, मेरे प्रज्वलित प्राण! पर मेरे उर में जिस भव्य आराधना का उपकरण हो रहा है, तुम उस के लक्ष्य, मेरे आराध्य, नहीं हो।...

मैं हूँ खड़ा देखता वह जो सारस-गति में चली जा रही, मौन रात्रि में, नीरव गति से दीपों की माला के आगे। क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे!...

दूरवासी मीत मेरे! पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे? आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर...

तोड़ दूँगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान! तुम हँसो, कह दो कि अब उत्संग वर्जित है- छोड़ दूँ कैसे भला मैं जो अभीप्सित है? कोषवत्ï, सिमटी रहे यह चाहती नारी-...

एक दिन रूक जाएगी जो लय उसे अब और क्या सुनना? व्यतिक्रम ही नियम हो तो उसी की आग में से ...

कौन-सी लाचारी से नाल पर, खिली यह कली फूलदान में- मूल से कटी हुई?...

आशाहीना रजनी के अन्तस् की चाहें, हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें जल-जल कर जब बुझ जाती हैं, जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित...

गलमुच्छे आँखों में बर्छियाँ चमरौंधे से अपने को रौंदता चला जाता मरुथल चुप-चाप।...

उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त- वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर, जरा-मृत्यु,...

प्रेक्षागृह की मुँडेर पर बैठ मैं ने उसे बाहर रंगपीठ की ओर जाते हुए देखा था, यद्यपि वह नटी नहीं थी, और नाटक-मंडली अपना खेल दिखा कर...

सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर : डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी चोर पैरों से उझक कर झाँक जाती है। प्रस्फुटन के दो क्षणों का मोल शेफाली...

फूल को प्यार करो पर झरे तो झर जाने दो, जीवन का रस लो : देह-मन-आत्मा की रसना से पर जो मरे उसे मर जाने दो। जरा है भुजा तितीर्षा की : मत बनो बाधा-...

सपने मैं ने भी देखे हैं- मेरे भी हैं देश जहाँ पर स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं। मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस...

मुझे सब कुछ याद है मुझे सब कुछ याद है। मैं उन सबों को भी नहीं भूला। तुम्हारी देह पर जो खोलती हैं अनमनी मेरी उँगलियाँ-और जिन का खेलना...

झील पर अनखिली लम्बी हो गयीं परछाइयाँ गहन तल में कँपी यादों की सुलगती झाँइयाँ आह! ये अविराम अनेक रूप विदाइयाँ...

सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी ...

कुहरा था, सागर पर सन्नाटा था: पंछी चुप थे। महाराशि से कटा हुआ ...

पैताने से धीरे-धीरे खिसक गयी है धूप। सिरहाने रखे हैं पीले गुलाब।...

शरद चाँदनी बरसी अँजुरी भर कर पी लो। ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी ओ प्रिय कुमुद ताकते अनझिप...

तोड़ो मृदुल वल्लकी के ये सिसक-सिसक रोते-से तार, दूर करो संगीत-कुंज से कृत्रिम फूलों का शृंगार! भूलो कोमल, स्फीत स्नेह स्वर, भूलो क्रीडा का व्यापार, हृदय-पटल से आज मिटा दो स्मृतियों का अभिनव संसार!...

मैंने कहा कि 'चिड़िया' : मैं देखता रहा- चिड़िया चिड़िया ही रही।...

कहाँ! न झीलों से न सागर से, नदी-नालों, पर्वत-कछारों से, न वसन्ती फूलों से, न पावस की फुहारों से...

तीन दिन बदली के गये, आज सहसा खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के...

राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचो-बीच बैठ पछाहीं भैंस जुगाली कर रही है : तेज़ दौड़ती मोटरें, लारियाँ,...

उस के पैरों में बिवाइयाँ थीं उस के खेत में सूखे की फटन और उस की आँखें...

ठठाती हँसियों के दौर मैंने जाने हैं कहकहे मैंने सहे हैं। पर सार्वजनिक हँसियों के बीच अकेली अलक्षित चुप्पियाँ...

गजर बजता है और स्वर की समकेन्द्र लहरियाँ फैल जाती हैं...

उखड़ा-सा दिन, उखड़ा-सा नभ, उचटे-से हेमन्ती बादल- क्या इसी शून्य में खोएगा अपना दुलार का अन्तिम पल? ढलते दिन में तन्द्रा-सी से सहसा जग कर अलसाया-सा, करतल पर तेरे कुन्तल धर मैं बैठा हूँ भरमाया-सा-...

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,...

जाते-जाते कहते हो-'जीवन, अब धीरज धरना!' क्यों पहले ही न बताया मत प्रेम किसी से करना! तुम कहते तो मैं सुनती? मैं आहुति स्वयं बनी थी! मेरी हतसंज्ञ विवशता में चेतनता कितनी थी!...

तुम्हारी पलकों के पीछे रह-रह सुलगते अंगार हैं... माना आग के परदों के पीछे...

मैं अमरत्व भला क्यों माँगूँ? प्रियतम, यदि नितप्रति तेरा ही स्नेहाग्रह-आतुर कर-कम्पन विस्मय से भर कर ही खोले मेरे अलस-निमीलित लोचन; नितप्रति माथे पर तेरा ही ओस-बिन्दु-सा कोमल चुम्बन...