कृत-बोध
तीन दिन बदली के गये, आज सहसा खुल-सी गयी हैं दो पहाड़ों की श्रेणियाँ और बीच के अबाध अन्तराल में, शुभ्र, धौत मानो स्फुट अधरों के बीच से प्रकृति के बिखर गया हो कल-हास्य एक क्रीड़ा-लोल अमित लहर-सा- लाँघ कर मानस का शून्य तम नि:सृत हुआ है द्युत तेरे प्रति मेरे कृत-बोध का प्रकाश- चेतना की मेखला-सी जीवनानुभूति की पहाडिय़ों के बीच मेरी, विनत कृतज्ञता फैल गयी खुले आकाश-सी।

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