दूरवासी मीत मेरे
दूरवासी मीत मेरे! पहुँच क्या तुझ तक सकेंगे काँपते ये गीत मेरे? आज कारावास में उर तड़प उठा है पिघल कर बद्ध सब अरमान मेरे फूट निकले हैं उबल कर याद तेरी को कुचलने के लिए जो थी बनायी- वह सुदृढ़ प्राचीर मेरी हो गयी है छार जल कर! प्यार के प्रिय भार से हैं सजल नैन विनीत मेरे! दूरवासी मीत मेरे! आज मैं कितना विवश हूँ बद्ध हैं मेरी भुजाएँ- प्राण पर आराधना की साध को कैसे भुलाएँ? कोठरी में तन झुके, मन विनत हो तेरे पदों में- गीत मेरे घेर तुझ को मूक हों, सुध भूल जाएँ! हाय अब अभिमान के वे दिन गये हैं बीत मेरे!| दूरवासी मीत मेरे!

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