सूनी-सी साँझ एक
सूनी-सी साँझ एक दबे-पाँव मेरे कमरे में आई थी । मुझ को भी वहाँ देख थोड़ा सकुचायी थी । तभी मेरे मन में यह बात आई थी कि ठीक है, यह अच्छी है, उदास है, पर सच्ची है : इसी की साँवली छाँह में कुछ देर रहूँगा इसी की साँस की लहर पर बहूँगा चुपचाप इसी के नीरव तलुवों की लाल छाप देखता कुछ नहीं कहूँगा । पर उस सलोनी के पीछे-पीछे घुस आईं बिजली की बत्तियाँ बेहया धड़-धड़ गाड़ियों की : मानुषों की खड़ी-खड़ी बोलियाँ । वह रुकी तो नहीं, आई तो आ गई; पर साथ-साथ मुरझा गई । उस की पहले ही मद्धिम अरुणाली पर घुटन की एक स्याही-सी छा गई । -सोचा था कुछ नहीं कहूँगा : कुछ नहीं कहा : पर मेरे उस भाव का, संकल्प का बस, इतना ही रहा । यह नहीं वह न कहना था जो कि उस की उदास पर सच्ची लुनाई में बहना था जो अपने ही अपने न्रहने को तद‍गत हो सहना था । यह तो बस रुँध कर चुप रहना था । यों न जाने कब कहाँ वह साँझ ओझल हो गई । और मेरे लिए यह सूने न रहने की रीते न होने की बाँझ अनुकम्पा समाज की कितनी बोझल हो गई !

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