निरस्त्र
कुहरा था, सागर पर सन्नाटा था: पंछी चुप थे। महाराशि से कटा हुआ थोड़ा-सा जल बन्दी हो चट्टानों के बीच एक गढ़िया में निश्चल था— पारदर्श। प्रस्तर-चुम्बी बहुरंगी उद्भिज-समूह के बीच मुझे सहसा दीखा केंकड़ा एक: आँखें ठण्डी निष्प्रभ निष्कौतूहल निर्निमेष। जाने मुझ में कौतुक जागा या उस प्रसृत सन्नाटे में अपना रहस्य यों खोल आँख-भर तक लेने का साहस; मैंने पूछा: क्यों जी, यदि मैं तुम्हें बता दूँ मैं करता हूँ प्यार किसी को— तो चौंकोगे? ये ठण्डी आँखें झपकेंगी औचक? उस उदासीन ने सुना नहीं: आँखों में वही बुझा सूनापन जमा रहा। ठण्डे नीले लोहू में दौड़ी नहीं सनसनी कोई। पर अलक्ष्य गति से वह कोई लीक पकड़ धीरे-धीरे पत्थर की ओट किसी कोटर में सरक गया। यों मैं अपने रहस्य के साथ रह गया सन्नाटे से घिरा अकेला अप्रस्तुत अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र निष्कवच, वध्य।

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