देखता-अगर देखता
प्रेक्षागृह की मुँडेर पर बैठ मैं ने उसे बाहर रंगपीठ की ओर जाते हुए देखा था, यद्यपि वह नटी नहीं थी, और नाटक-मंडली अपना खेल दिखा कर कब की चली जा चुकी थी : मंडली के आर्फ़िउस की वंशी वहाँ फिर सुनाई नहीं देगी। और अगर मैं घाटी के छोर पर बैठ कर देखता तो मैं उसे बार-बार तलेटी की ओर जाते हुए देखा करता, यद्यपि वह न सूरमा थी न सेना ही पिछलगू, और वीरों की टोलियाँ कब की घाटी से उतर करखाड़ी के पार चली जा चुकी हैं : जहाँ से लौटती हुई कारिंथोस के विजेता की हुं कार ही गूँज अब घाटी को नहीं थरथराएगी। पर अगर मैं जालिपा के इस उजाड़ वन के किनारे बैठ उसे ताका करता जिस में अब न पुजारियों की सीठी पदचाप है न तीर्थयात्रियों की बेकल चहल-पहल तो इस की बल खाती पगडंडियों पर वह न दीखती : और मैं जानता रहता कि वहाँ और उस से आगे, अधिक घने कुंजों में और उस से आगे, जहाँ छिपे सोते का पानी वापी में सँचता है- सर्वत्र एक अँधियारा सन्नाटा है, जालिपा की सैकड़ों वर्षों से मरोड़ी हुई डालें हैं और मेरी एकटक आँखें जिन में उस की अनुपस्थिति सनसनाती है!

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