सपने मैंने भी देखे हैं
सपने मैं ने भी देखे हैं- मेरे भी हैं देश जहाँ पर स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं। मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द्यौस्पितर के! आज अगर मैं जगा हुआ हूँ अनिमिष- आज स्वप्न-वीथी से मेरे पैर अटपटे भटक गये हैं- तो वह क्यों? इसलिए कि आज प्रत्येक स्वप्नदर्शी के आगे गति से अलग नहीं पथ की यति कोई! अपने से बाहर आने को छोड़ नहीं आवास दूसरा। भीतर-भले स्वयं साँई बसते हों। पिया-पिया की रटना! पिया न जाने आज कहाँ हैं : सूली पर जो सेज बिछी है, वह-वह मेरी है!

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