मुलाक़ात
तुम्हारी पलकों के पीछे रह-रह सुलगते अंगार हैं... माना आग के परदों के पीछे वहाँ प्रकाश के और संसार हैं मगर परदा उठाओ मत- उस प्रकाश के पीछे फिर राख के अम्बार हैं! आग को न छेड़ो- सुलगना भी सुन्दर है दबी भी आग देर तक तपाती रहेगी... (आग को छुआ नहीं था न, इस की हसरत दिनों तक सहलाती रहेगी) लो-हो गयी मुलाकात : अब तुम्हारी राह उधर मेरी इधर : न हुई सही बात- पर यह तो जान लिया कि जलते तो जा रहे हैं अविराम- और यों चलते ही जा रहे हैं नातमाम...

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