गति मनुष्य की
कहाँ! न झीलों से न सागर से, नदी-नालों, पर्वत-कछारों से, न वसन्ती फूलों से, न पावस की फुहारों से भरेगी यह— यह जो न ह्रदय है, न मन, न आत्मा, न संवेदन, न ही मूल स्तर की जिजीविषा— पर ये सब हैं जिस के मुँह ऐसी पंचमुखी गागर मेरे समूचे अस्तित्व की— जड़ी हुई मेरी आँखों के तारों से पड़ी हुई मेरे ही पथ में जाने को जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ... प्यासी है, प्यासी है गागर यह मानव के प्यार की जिस का न पाना पर्याप्त है, न देना यथेष्ट है, पर जिस की दर्द की अतर्कित पहचान पाना है, देना है, समाना है... ओ मेरे क्रूर देवता, पुरुष, ओ नर, अकेले, समूहगत, ओ न-कुछ, विराट् में रूपायमान! मुझे दे वही पहचान उसी अन्तहीन खड्गधार का सही सन्धान मुझे जिस से परिणय ही हो सकती है परिणति उस पात्र की। मेरे हर मुख में, हर दर्द में, हर यत्न, हर हार में हर साहस, हर आघात के हर प्रतिकार में धड़के नारायण! तेरी वेदना जो गति है मनुष्य मात्र की!

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