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फेन ग्रथित जल, हरित शष्प दल, जिससे सरित पुलिन आलिंगित, उस पर मत चल, वह चिर कोमल ललना की रोमावलि पुलकित!...

विहगों का मधुर स्वर हृदय क्यों लेता हर? क्यों चपल जल लहर तन में भरती सिहर?...

लाई हूँ फूलों का हास, लोगी मोल, लोगी मोल? तरल तुहिन-बन का उल्लास लोगी मोल, लोगी मोल?...

प्रिये, तुम्हारे बाहुपाश के सुख में सोया मैं उस बार किसी अतीन्द्रिय स्वप्न लोक में करता था बेसुध अभिसार!...

जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!...

मीना की ग्रीवा से झरझर गाती हो मदिरा स्वर्णिम स्वर, गान निरत उर, वाद्य रव मधुर, नूपुर ध्वनि हरती हो अंतर!...

स्तुत्य यदि तेरे काम, न तेरे गुण से वे, सच जान! निन्द्य यदि तू अघ ग्राम, न तेरा दोष, व्यर्थ अभिमान!...

सृष्टि मिट्टी का गहरा अंधकार डूबा है उसमें एक बीज,-- वह खो न गया, मिट्टी न बना,...

अंधकार में लिखा हुआ जो कौन पढ़ सका उसका भेद? इस निगूढ़ जग का रहस्य चिर अविदित, सखे, करो मत खेद!...

खोलकर मदिरालय का द्वार प्रात ही कोई उठा पुकार मुग्ध श्रवणों में मधु रव घोल, जाग उन्मद मदिरा के छात्र!...

छोड़ काज, आओ मधु प्रेयसि, बैठो वृद्ध उमर के संग, क़ैक़ुवाद औ’ केख़ुसरू का छेड़ो मत प्राचीन प्रसंग!...

तुम प्रणय कुंज में जब आई पल्लवित हो उठा मधु यौवन मंजरित हृदय की अमराई। मलय हुआ मद चंचल...

सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन, चिर सुन्दर सुख-दुख का मन, सुन्दर शैशव-यौवन रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!...

हृदय जो सदय, प्रणय आगार, भक्त, उस उर पर कर अधिकार! न मंदिर मसजिद के जा द्वार न जड़ काबे पर तन मन वार!...

मुझे असत् से ले जाओ हे सत्य ओर मुझे तमस से उठा, दिखाओ ज्योति छोर, मुझे मृत्यु से बचा, बनाओ अमृत भोर! बार बार आकर अंतर में हे चिर परिचित,...

जीवन की मर्मर छाया में नीड़ रच अमर, गाए तुमने स्वप्न रँगे मधु के मोहक स्वर, यौवन के कवि, काव्य काकली पट में स्वर्णिम सुख दुख के ध्वनि वर्णों की चल धूप छाँह भर!...

तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल,...

प्रणय लहरियों में सुख मंथर बहे हृदय की तरी निरन्तर, जीवन सिन्धु अपार! इसका कहीं न ओर छोर रे,...

वह प्याला भर साक़ी सुंदर, मज्जित हो विस्मृति में अंतर, धन्य उमर वह, तेरे मुख की लाली पर जो सतत निछावर!...

कहाँ वह करुणा, करुणागार, विषय रस में रत मेरे प्राण! पीठ पर लदा मोह का भार, कहाँ वह दया, करे जो त्राण!...

बज पायल छम छम छम! उर की कंपन में निर्मम बज पायल छम...

कभी न पीछे हटने वाले ही पाते जय बहिरंतर के ऐश्वर्यों का करते संचय! वह प्रतिजन का हो अथवा सामूहिक वैभव ऐहिक आत्मिक सुख पुरुषार्थी के हित संभव!...

उमर न कभी हरित होगा फिर पलित वयस का गलित लिबास, मेरे मन अनुकूल फिरेगा भाग्य चक्र, यह व्यर्थ प्रयास!...

मदिर अधरों वाली सुकुमार सुरा ही मेरी प्रिया उदार! मौन नयनों में भरे अपार तरुण स्वप्नों का नव संसार!...

जीवन चित्रकरी हे सृजन आनंद परी हे, करो कुसुमित वसुधा पर स्वर्ण की किरण तूलि धर...

उस हरी दूब के ऊपर छाया जो बादल सुंदर, वह बरस पड़ा अब झर झर, वह चला गया हँस-रोकर!...

पान करना या करना प्यार उमर यदि हो अपराध, साधुवर, क्षमा करो, स्वीकार न मुझको वाद विवाद!...

यह हँसमुख मृदु दूर्वादल है आज बना क्रीड़ा स्थल! इसने मेरे हित फैलाया श्यामल पुलकित अंचल!...

बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो करता सतत रुदन कातर, हँस हँस कर नित कहता सागर मैं ही हूँ तेरे भीतर!...

गगन के चपल तुरग को साध कसी जब विधि ने ज़ीन लगाम, ज्वलित तारों की लड़ियाँ बाँध गले में डाली रास ललाम!...

तरुण युवक वो, कर्मों में था जिसको कौशल रण में अरियों के मद को करता था हत बल, पलित वृद्ध उसको माता हे आज रे निगल मृतक पड़ा वह वीर, साँस लेता था जो कल!...

अमित तेज तुम, तेज पूर्ण हो जनगण जीवन दिव्य वीर्य तुम वीर्य युक्त हों सबके तम मन! दीप्त औज बल तुम बल ओज करें हम धारण शुद्ध मन्यु तुम, करें मन्यु से कलुष निवारण!...

मदिराधर कर पान नहीं रहता फिर जग का ज्ञान! आता जब निज ध्यान सहज कुंठित हो उठते प्राण!...

चंचल जीवन स्रोत बहता व्याकुल वेग, पुलिन-फेन-परिप्रोत सुख दुख, हर्षोद्वेग!...

चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन् जय गाओ सुरगण, आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन! नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण तरुण अरुण सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!...

सुनहले फूलों से रच अंग सलज लाला सा मुख सुकुमार, सुरा घट सा दे मादक रंग शिखर तरु सा उन्नत आकार!...

दीप्त अभीप्से मुझको तू ले जा सत्पथ पर यज्ञ कुंड हो मेरा हृदय अग्नि हे भास्वर! प्राण बुद्धि मन की प्रदीप्त घृत आहुति पाकर मेरी ईप्सा को पहुँचा दे परम व्योम पर!...

भावी पत्नी के प्रति प्रिये, प्राणों की प्राण! न जाने किस गृह में अनजान छिपी हो तुम, स्वर्गीय-विधान!...

एक धार बहता जग जीवन एक धार बहता मेरा मन! आर पार कुछ नहीं कहीं रे इस धारा का आदि न उद्गम!...

पूछते मुझसे, ‘ए ख़ैयाम, तुझे क्यों भाया मधु व्यापार?’ सुनो, ‘मैंने धर्मों को छान किया इस मदिर दृगी से प्यार!...