बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो
बिन्दु सिन्धु से उमर विलग हो करता सतत रुदन कातर, हँस हँस कर नित कहता सागर मैं ही हूँ तेरे भीतर! निखिल सृष्टि में व्याप्त एक ही सत्य, न कुछ उसके बाहर, फिर अखंड बन जाएगा तू अगर पी सके मदिराधर!

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