कभी न पीछे हटने वाले ही पाते जय
बहिरंतर के ऐश्वर्यों का करते संचय!
वह प्रतिजन का हो अथवा सामूहिक वैभव
ऐहिक आत्मिक सुख पुरुषार्थी के हित संभव!
ठुकरा सकते वीर मृत्यु पद जो पग पग पर,
आत्म त्याग, उत्सर्ग हेतु जो रहते तत्पर,
दीर्घ विशद विस्तृत जीवन धारण कर निश्चय,
धान्य प्रजा संयुक्त सदा बनते समृद्धिमय।
शुद्ध चित्त बन दीप्त अभीप्सा हवि कर,
विश्व यज्ञ में, बनें मनुज सब अमृत, मृत्युजित,
उठें सत्य से प्रेरित होकर दुर्बल पीड़ित,
बनें सत्य के सम्मुख सत्ताधारी विनयित!
ऋत की रे संपदा शुद्ध, निष्कलुष समर्पित,
सुनता है आह्वान सत्य का बधिर भी श्रवित,
दुह सुहस्त गोधुक कोई, सुद्धा गो को नित,
हमें पिलावे सविता का रस, ऋत दुग्धामृत!