जग के उर्वर आँगन में
जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन! बरसो कुसुमों में मधु बन, प्राणों में अमर प्रणय-धन; स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में, उर-अंगों में सुख-यौवन! छू-छू जग के मृत रज-कण कर दो तृण-तरु में चेतन, मृन्मरण बाँध दो जग का, दे प्राणों का आलिंगन! बरसो सुख बन, सुखमा बन, बरसो जग-जीवन के घन! दिशि-दिशि में औ’ पल-पल में बरसो संसृति के सावन!

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