देव काव्य
तरुण युवक वो, कर्मों में था जिसको कौशल रण में अरियों के मद को करता था हत बल, पलित वृद्ध उसको माता हे आज रे निगल मृतक पड़ा वह वीर, साँस लेता था जो कल! इस महत्वमय देव काय को देखो प्रतिपल क्षण भंगुर यह विश्व काल का मात्र रे कँवल! चंद्र, सूर्य की आभा में यों हो जाता लय, प्राण इंद्रियाँ आत्मा में मिलतीं निःसंशय! नित्य इंद्रियों से अतीत आत्मा का जीवन, अमृत नाभि जो अन्न प्राण मन की चिर गोपन! व्यक्ति क्षुद्र है विश्व परिधि सत्ता से अक्षय, सृजन शील परिवर्तन नियम सनातन निश्वय! नाम रुप परिधान पुरुष के मात्र रे वसन, आत्मवान् होते न काल के दर्शन के अशन! दिव्य पुरुष ओ अति समीप अंतरतम में स्थित, नहीं देख पाते जन उसको वह अभिन्न नित! देखो उसके भिन्न काव्य को संसृति विस्तृत, वह न कभी मरता न जीर्ण होता वेदामृत!

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